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________________ आचार्य श्री वीरसूरि भिन्नमाल के कोटिध्वज सेठ शिवनाग और उनकी पत्नी पूर्णलता से एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम वीरकुमार रखा । यौवनवय में वीरकुमार की शादी सात कन्याओं से हुई । माता-पिता की मृत्यु से वीरकुमार वैराग्य पाकर प्रत्येक पत्नी को करोड-करोड द्रव्य देकर शेष धन को मन्दिरों में और संघभक्ति में लगा दिया । गृहस्थ के भेष में परिग्रह का त्याग कर साधना करने लगे । रात्रि में नगर बाहर जाकर कायोत्सर्ग में रहते थे, जहाँ अनेक उपद्रवों को सह लेते थे । इस बीच आ० श्री विमलचन्द्रसूरि के दर्शन हुए और उनके हाथों से वि.सं. ९८० में दीक्षा ली। आचार्य श्री के पास से आपने गणिविद्या और अंगविद्या शास्त्रों की आम्नाय पाई । विरूपाक्ष यक्ष के मन्दिर में पशु-बलि बन्द करवाई एवं इसी यक्ष की सहायता से आपने अष्टापद तीर्थ की यात्रा की। आप मन्त्र-सिद्ध थे । पाटण का राजा चामुण्डराय आपका उपासक था । राजगच्छ के आचार्य श्री वर्धमानसूरि ने आपको आचार्य पद दिया था । __ आपने परमार राजपुत्र भद्रकुमार को दीक्षा शिक्षा देकर विद्वान् बनाया, अन्तिम अवस्था में भद्रमुनि को आचार्य पद से अलङ्कृत कर उनका नाम आचार्य श्री चन्द्रसूरि रखा । अन्त में अनशन कर आप स्वर्ग पधारे । आचार्य श्री जीवदेवसूरि इस बीच अनेक प्रभावक आचार्य हुए । आचार्य श्री जीवदेवसूरि मन्त्रसिद्ध हुए । इनके पास 'अप्रतिचक्रादेवी' विद्या और 'परकायप्रवेश' विद्या थी । एक बार आप प्रभास पाटण पधारे, तब वहाँ श्रीचन्द्रप्रभस्वामी की प्रतिमा के सन्मख आकर आपको सोमदेव महादेव, ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य, गणपति, स्कन्द वगैरह की प्रतिमाओं ने नमस्कार किया था। आचार्य श्री सिद्धर्षि आप कर्मवाद और ज्योतिष के अद्वितीय विद्वान् गर्गषि से दीक्षित हुए थे। पूर्व पर्याय से ब्राह्मण और कवि माघ के चचेरे भाई थे । जैनी दीक्षा लेकर जैन दर्शन का अध्ययन किया । पश्चात् बौद्ध दर्शन के अध्ययन हेतु महाबोधनगर
SR No.022704
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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