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________________ तीर्थ यात्रा करने से रोका । परस्पर युद्ध के लिए आह्वान हुआ और दोनों तर्फ युद्ध की तय्यारियें होने लगी, परंतु आचार्य श्री ने दोनों पक्षों को शान्त करते हुए कहा कि तीर्थ यात्रा के पवित्र कार्य में मानव संहार शोभा नहीं देता है । हम आचार्य एक होकर इसका निर्णय कर लेते हैं । इस प्रकार दिगम्बर आचार्य तीन दिन तक मन्त्रप्रयोग करने पर भी श्वेतांबर कन्या में अंबिका देवी को उतारने में निष्फल रहे । तब आचार्य श्री के एक क्षण मात्र के प्रयत्न से दिगम्बर कन्या में अंबिका देवी उतर आई । वह कन्या स्पष्ट रीति से 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र की 'उज्जिंतसेलसिहरे' इत्यादि चौथी गाथा बोलने लगी । इसी समय सर्वत्र 'श्वेतांबरों की जय' ध्वनि गूंज उठी । दिगम्बर वहाँ से चले गये और गिरनार पुनः श्वेतांबर तीर्थ बना। __ आपने अनेक ग्रन्थों की रचना की, 'चतुर्विंशतिजिनस्तुति' और 'सरस्वतीस्त्रोत' आज भी उपलब्ध हैं । वि.सं. ८९५ में आप पाटलिपुत्र में अनशन कर स्वर्गवासी हुए । आचार्य श्री नन्नसूरि और गोविन्दसूरि आपके गुरु भाई थे । __कृष्णऋषि युगप्रधान श्री हारिलसूरि से हारिल वंश निकला । इसी वंश में आचार्य श्री तत्त्वाचार्य के शिष्य आ० श्री० यक्षमहत्तर हुए, जिन्होंने खट्टकूप (खांटू) में भव्य जिलानय की स्थापना की थी। इनके शिष्य कृष्णऋषि से कृष्ण गच्छ चला। __ कृष्णर्षि निर्मल संयमी और घोर तपस्वी थे । इन्होंने चार महीने के उपवास तक के तप किये थे । आप प्रतिवर्ष अधिक से अधिक ३४ पारणे करते थे और प्रायः पारणे स्थानों पर नूतन मन्दिरों का निर्माण होता था। शक. सं. ७१९ वि.सं. ८५४ में नागोर में भी भगवान् महावीरस्वामी के जिनालय की प्रतिष्ठा आपने करवाई थी । तप के प्रभाव से आपके नाम मात्र से मनुष्य की आधि व्याधि और उपाधि नष्ट हो जाती थी। आपके चरणोदक (पांव के पानी) से सर्प आदि के विष उतर जाते थे । आपके स्पर्श, मल, मूत्र आदि से व्याधि दूर हो जाती थी। अनेक राजा-महाराजा आपके भक्त थे । आपने अनेक राजा, श्रेष्ठी और ब्राह्मणों को दीक्षा देकर शिष्य बनाया था। आप श्मशान में जाकर ध्यान करते थे, जहाँ अनेक उपसर्गो के बीच भी अडिग रहते थे। (४४)
SR No.022704
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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