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________________ कविराज पं. श्रीवीरविजय गणि पं. श्री जशविजय गणि के शिष्य प. श्री शुभविजय गणि हुए। इनके शिष्य पं. श्री वीरविजय गणि हुए। ये जन्म से ब्राह्मण थे । जैनी दीक्षा लेने के बाद गुरुकृपा से ये बडे विद्वान्, वादी और कवि हुए । पैंतालीस आगम इन्हें आत्मसात् थे। एक बार अहमदाबाद के सूबेदार का ब्राह्मण मन्त्री राजसभा में जैनों का उपहास करते बोला- जैनी एक आलू में अनेक जीव मानते हैं । नगरशेठ की प्रार्थना से आपने राजसभा में सिंहगर्जना करते कहा- हम एक आलू में अनेक जीव मानते हैं और प्रत्यक्ष सिद्ध करके भी बता सकते हैं, किन्तु ब्राह्मण जो गाय की पूँछ में तेतीस करोड देवताओं का वास मानते हैं, वे सिद्ध कर बता दें । सूबेदार ने आपको और अपने ब्राह्मण मन्त्री को अपनी अपनी बात अमुक मुदत में प्रत्यक्ष सिद्ध कर दिखाने को कहा । तब राज सभा में ही श्रावकों द्वारा मिट्टी के अलग अलग कुण्डों में एक ही आलू के विशिष्ट अंश बोये गये । सभी अंश उग निकले और जैनों का सिद्धान्त सत्य साबित हुआ । ब्राह्मण मन्त्री बेचारा गाय की पूंछ में तेतीस करोड तो क्या, एक भी देवता बता न सका । अतः वह बडा लज्जित हुआ और आपका जय-जयकार हुआ । अहमदाबाद में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन स्थापित हो चूका था । वि.सं. १८७८ में स्थानकवासियों के कुछ साधु, आपको अहमदाबाद से बाहर जानकर वाद करने के लिए वहाँ आये । न्यायालय में वाद चला । आपने स्थानकवासियों को पराजित कर जिन-प्रतिमा को सिद्ध की । आपका जयजयकार हुआ और स्थानकवासी साधु परस्पर एक दूसरे को कोसते हुए तितर बितर हो गये । आपकी वि.सं. १८५८ से वि.सं. १८८९ तक रची गई पूजाएँ, सिद्धान्त के रहस्यों से भरी हुई और भाववाही हैं । इसी तरह आपके स्तवन, स्तुति, सज्झाय और रास भी लोकप्रिय है । (१३९)
SR No.022704
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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