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________________ 'आनन्दधन' पद से अंकित हैं । ये महोपाध्याय श्री यशोविजय के समकालीन थे। इन दोनों के बीच का प्रीति ज्ञानयोग और भक्तियोग के संगम की प्रतीक थी। एक बार आप अहमदाबाद के किसी उपाश्रय में बिराजमान थे । प्रवचन का समय नियत था । उपाश्रय का अगुआ श्रावक कुछ विलंब से पहुँचा और उसने देखा कि प्रवचन प्रारंभ हो गया है । तब वह योगिराज को उलाहना देने लगा। योगिराज शान्त और स्थिर भाव से 'रोटी तो आनन्दधन खा गया और ये कपडे हैं सो ले ले' कहते हुए शहर छोड चल दिये । बाद में ये आबू पर्वत पर और मारवाड में विचरे । मेडता के राणा की रानी नि:संतान होने से अपमानित थी। एक बार योगिराज के पास पहुंची और अपनी दर्दभरी स्थिति बताकर पुत्र की कामना की । योगिराज निस्पृह भाव से बोलेरानी को पुत्र हो तो आनन्दधन को क्या ? और न हो तो भी आनन्दधन को क्या ? रानी ने योगिराज के इन शब्दों को मानो पुत्र प्राप्ति का मन्त्र ही हो, ऐसा समझकर तावीज में मढाकर बाँध दिया । उचित समय में रानी ने पुत्र को जन्म दिया । राणा ने जब इस तावीज की बात सुनी तो उसके आश्चर्य का पार न रहा और वह योगिराज की निस्पृहता से उनका अनन्य भक्त बन गया । एक बार चौहट्ट में नर्तकी नृत्य के साथ गा रही थी। उसी समय योगिराज बाहरभूमि से लौट रहे थे । दर्शकों की भीड से प्रायः रास्ते बन्द हो गये थे । अतः योगिराज एक तरफ खडे रह गये । सामान्य लोगों ने तो यही समझा कि योगिराज भी नर्तकी का नाच देखने आये हैं । प्रसंग की पूर्णाहुति के बाद लोगों में खूब चर्चा हुई, किन्तु योगिराज से समाधान पाने का कोई साहस न कर सका। दूसरे दिन योगिराज ने प्रवचन-सभा में इसी प्रसंग को छेडते हुए श्रोताओं से पूछा- कल क्या देखा ? क्या सुना ? सभी श्रोता चुप थे । योगिराज मौन भंग करते हुए बोले- सुनो, कल वाद्य नृत्य और गायन हो रहा था । उसमें नगाडा जोर शोर से कह रहा था... नरक...नरक...नरक... । तब वीणा...कुण... कुण...कुण... आवाज कर मानो पूछ रही थी कि कौन-कौन नरक में जायेगा ? नर्तकी इस प्रश्न के समाधान में दर्शकों की तर्फ हाथ लम्बा कर...आ...आ... आ... आलापती मानो कह रही थी कि ये दर्शक (नरक जाएँगे) सभा, योगिराज
SR No.022704
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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