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________________ पास, इन्होंने वि.सं. १७०२ में दीक्षा ली और नयविमल नाम से प्रसिद्ध हुए । वि.सं. १७४८ में आ०श्री विजयप्रभसूरि (६१) की आज्ञा से आचार्य पद प्राप्त कर ये आ०श्री ज्ञानविमलसूरि (६२) के नाम से प्रसिद्ध हुए । महोपाध्याय श्री यशोविजयजी की प्रेरणा से इन्होंने वि.सं. १७४९ में क्रियोद्धार कर संवेगी मार्ग अपनाया । ये विद्वान् और समर्थ कवि थे । ज्ञानसार और श्री आनन्दघनजी की चौबीसी पर आपने संक्षिप्त विवेचनरूप टब्बों की, अनेक स्तवन, स्तुति, सज्झाय और देववंदन आदि की रचना की । वि.सं. १७८२ में ये स्वर्गवासी हुए । आ० श्री आनन्दविमलसूरि के शिष्य श्री ऋद्धिविमलगणि ने भी वि.सं. १७१० में महोपाध्याय श्री यशोविजय के सहयोग से क्रियोद्धार किया था । इन दोनों से विमल शाखा निकली। वर्तमान साधु-समूदाय इस तरह आ० श्री विजयसेनसूरि के बाद साधुसमुदाय पांच शाखाओं में बट गया - (१) देवसूरि गच्छ (२) आनन्दसूरि गच्छ (३) संवेगीशाखा (४) सागरगच्छ और (५) विमलगच्छ । वर्तमान काल में यह शाखाभेद विद्यमान नहीं है । सिर्फ संवेगी परंपरा विद्यमान है जिसमें (१) विजय, (२) सागर और (३) विमल अन्त वाले नामों के साधु हैं । श्री मोहनलालजी महाराज के साधुओं के नाम 'मुनि' अन्त वाले हैं । श्री हीरमुनि को नाना (जि. पाली-राज.) गांव में कुछ अज्ञान लोगों ने उपसर्ग किया था जिसे उन्होंने क्षमापूर्वक सहा था । वर्तमान में आ.श्री चिदानन्दसूरि आदि है। न्यायनिष्ठ बादशाह जहाँगीर हिन्दू बेगम जोधाबाई से उत्पन्न जहाँगीर अकबर बादशाह का ज्येष्ठ पुत्र था। अकबर बादशाह ने अपने अन्त समय ई.स. १६०५ में इसे अपना उत्तराधिकारी बनाया था। यह भी अपने पिता की तरह विद्वान् और संयमी जैन साधुओं के प्रति सद्भाव रखता था और अपने राज्य में अमारि प्रवर्तन करवाता था । वि.सं. १६६९ में अपने सत्ताईस वर्षीय शाहजादा शाहजहाँ के साथ अहमदाबाद में जगद्गुरु आ.श्री (१२५)
SR No.022704
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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