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________________ विशेषकर अदत्तादान व्रत निरतिचार ग्रहण किया । उस समय गुरुदेव ने उसे उसका विशेष स्वरूप समझाया । दूसरे की स्वामित्व का पदार्थ तृण-मणि आदि न लेना । वह भी दोकरण, तीनयोग से, तीनकरण, तीनयोग से, लिया जाता है। जिसने जिस प्रकार नियम लिया, उसे उस प्रकार पूर्णरूप से पालन करना चाहिए । उसका पालन या न पालन शुभाशुभ फल दाता बनता है। गिरा हुआ, विस्मृत, लूटकर, खींचकर, रहा हुआ पदार्थ जो लेता है, वह नरकगामी बनता है, विविध वेदना भोगता है। जो विवेक चक्षुवाला है। वह तृणादि को भी ग्रहण नहीं करता । वह जगत में मान्य होता है, जो इस व्रत को निरतिचार पालन करता है, वह विश्व व्यापी यश प्राप्तकर क्रमश: मोक्ष को प्राप्त करता है। सुत्रामा ने उसी प्रकार व्रत पालन की दृढ़ता स्वीकारकर सभी मुनि भगवंतों को वंदनकर, अपने घर आया । निर्विघ्न रीति से धर्मादि तीनों वर्गो का परिपालन करता था। एकबार अपने भाग्य परीक्षा हेतु माता-पिता पत्नी आदि की अनुमति लेकर व्यापारार्थ क्रयाणकादि [बेचने जैसा माल-सामान] लेकर पृथ्वी प्रतिष्ठित नगर में आया । भेंट द्वारा राजा को संतुष्ट कर किराये का घर लेकर देव-गुरु की भक्तिपूर्वक व्यापार करने लगा। मीठी वाणी से अनेक वणिक् पुत्रों से मित्रताकर उन्हें धर्मोपदेश से पवित्र करने लगा। व्यवहार शुद्धि से अनेक लोग उससे आकर्षित हुए । व्यापार में लाभ भी बहुत हुआ । वह राजा का भी विश्वास पात्र हो गया । अदत्तादान के पांचों अतिचारों के वर्जन से वह लोगों का पूर्ण विश्वासभाजन हुआ था । पिता के बुलवाने पर, राजा की आज्ञा लेकर, सार्थ को आगे भेजकर, स्वयं घोड़े पर बैठकर चला । मित्रों को वापिस भेजकर वह अकेला आगे चला। थोड़ी दूर जाने पर, मार्ग में, उसे मणिमय कुंडल जोड़ी दिखायी दी। पर वह आगे चला । फिर कोस भर जाने के बाद मणिमय हार
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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