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________________ तुम्हारी विडंबना की, इसलिए क्षमा करना । यह मैंने तुमको प्रतिबोध देने के लिए किया था । अदत्त ग्रहण का फल यहाँ ऐसा मिलता है। परभव में नरक, दौर्भाग्य, निर्धनता आदि फल प्राप्त होता हैं। और जो प्राण जाने पर भी अदत्त नहीं लेते, वे लक्ष्मीपूंज के समान लक्ष्मी और वैभव को पाते हैं।" रतिमाला के पूछने पर लक्ष्मीपुंज की कथा कही । हस्तिपुर नगर में रूप, नाम और काम से पुरंदर राजा था और | उसकी पौलोमी रानी थी। वहाँ दयालु, सद्गुरु सेवक, अर्हद् भक्त नाम जैसे गुणवाला सुधर्मासेठ रहता था । उसकी धन्या नामकी पत्नी थी। वह श्रेष्ठि लाभान्तराय कर्म के उदय से गरीब हो गया। फिर भी वह आवश्यक क्रिया व देवार्चन समय पर करता था। एकबार पत्नी ने स्वप्न में पद्म सरोवर देखा । पति से पूछने पर विचारकर पति ने कहा "अति उत्तम पुन्य का धनी, अपार लक्ष्मीवान लावण्यनिधि पुत्र की तुम्हें प्राप्ति होगी। यह सुनकर वह भी खुश हुई। उसके पश्चात् गर्भ के प्रभाव से सौभाग्य और सद्बुद्धि में वृद्धि होने लगी। सेठ के घर से दारिद्य दूर होने लगा । व्यवसाय में लाभ होने लगा । गर्भ की वृद्धि के साथ सेठ का मान सन्मान भी बढ़ने लगा । समय पूर्ण होने पर शुभतिथि, शुभमुहूर्त में बालक का जन्म हुआ । माता को कोई पीड़ा न हुई। उस समय सेठ आंगन में गाय आदि पशुओं के स्थान पर था। दासी ने बधाई दी। उसे विपुलधन देने की इच्छावाला सेठ सोचने लगा। मेरे पास देने जितना धन नहीं है। तब वह भूमि खोदने लगा वहाँ नीचे एक बिल मिला। थोड़ा और खोदा तो पुत्र के पुन्यप्रभाव से नया सुवर्णद्रव्य देखा। सेठ ने दासी को यथेष्ट धन दिया। मेरा पुत्र उत्तम पुन्य का धनी है, ऐसा सोचा ! फिर दस दिन तक पिता ने अनेक प्रकार से जन्मोत्सव मनाया । उस बिल में से धन निकालने लगा, पर उसमें कम तो होता ही नहीं था । दान देने में, खर्च करने में अपरिमित धन व्यय हो रहा था । सुधर्मा ने सोचा, पृथ्वी का द्रव्य
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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