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________________ । देव की पूजा स्तवनाकर स्वर्णजट ने पारणा किया । वह पल्यंक पर बैठकर अनेक तीर्थों को वंदन करने के लिए (विद्याधरों के समान) जाता था। पुत्री की चिन्ता से अनेक राजकुमारों को भी देखने जाता था । एकबार कहीं राजकुल में राजकुमार देखने गया था । वहाँ से व्याघ्र बनकर आया । उसको देखकर डरे हुए तापस भागने लगे। तब व्याघ्र ने नखों से भूमि पर लिखकर कहा कि मैं स्वर्णजट हूँ । किसी देव के शापसे मैं व्याघ्र बना हूँ। किसी धर्म तत्त्वज्ञ पुरुष के संसर्ग से मैं पुरुष रूप में आऊँगा । अतः उसको यहाँ ले आओ ।' तापसों ने सोचा ‘तापसों से अधिक धर्म तत्त्वज्ञ और कौन होगा? यह सोचकर मंत्र विधान आदि किया परंतु कार्य सिद्धि नहीं हुई । तब सांख्य, अक्षपाद आदि से मंत्र विधान आदि करवाये । परंतु वे सब विफल गये। तब दूसरा उपाय न मिलने पर हम सभी चिन्तातुर हुए । फिर पर्वत पर स्थित गिरिचूड यक्ष के मंदिर में गये । और उसके सामने दर्भासन पर तप जप से उसकी अर्चना की। वह देव भी अष्ट उपवास के बाद प्रकट हुआ । हमने कहा-"हमारे कुलपति को वापिस तापस करो। देव ने कहा'' "मेरी शक्ति नहीं है । क्योंकि मुझसे बड़े देव ने ऐसा किया है। इसलिए दूसरा कुछ कहो जो मैं कर सकू। तब हमने कहा 'हमारी इष्ट सिद्धि के लिए धर्मतत्त्वज्ञ पुरुष को ले आओ। देव ने कहा' 'ज्ञानी के वचन से जानकर उसको ले आऊँगा ।' फिर वह कहीं गया। क्षणभर में आकर बोला 'चौथे दिन वह पुरुष स्वयं मिलेगा। ऐसा बोलकर वह आकाश में गया। चौथे दिन हम आकाश में उसकी राह देख रहे थे । तब हमारे भाग्य से आप आ गये। अब हमारे कुलपति को स्वरूपस्थ करने में आप समर्थ हो, अत: ऐसा करो। क्योंकि सज्जनों का कार्य परोपकार ही है ।' इस प्रकार हरिवीर तापस के मुख से व्याघ्र का चरित्र सुनकर जयानंदकुमार विस्मय पूर्वक बोला 'यदि मेरे द्वारा कथित
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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