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________________ तिर्यंचयोनि में फेंक दिया । आज आपने मेरा उद्धार किया। अब जो मैंने अनुभव किया वह मैं कहता हूँ। क्रीड़ा के लिए मैं वन में गया । यहाँ तक आपको ध्यान है। कामचेष्टा से मधुर स्नेह आलाप संलाप के द्वारा मुझे बार-बार मोहित करती सुभगा को सती जानता हुआ, उसका हाथ पकड़कर मैं गहन झाड़ी में प्रविष्ट हुआ । वहाँ मैं उसके साथ इधर-उधर वृक्षों को देखता हुआ घूम रहा था । तब उसने वहाँ मुझे क्रीड़ा करने हेतु अतीव कामातुर बना दिया और उसने वहाँ मेरे साथ क्रीड़ा की । फिर मुझे कहा 'जब आप मुझ पापिनी और रोगीष्ट को छोड़कर गये थे । उस समय मैं आप के संगम सुख से वंचित होकर ठीक हुई । एकबार भिक्षा के लिए आयी एक परिव्राजिका को औषधियों की थैली सहित देखी । उसको विज्ञ जानकर इच्छित पदार्थों के दानादि से संतुष्ट की । एकबार उसने कहा "हे सुभगे! बोल, मैं सभी कार्यो में प्रवीण हूँ। तेरा कोई कार्य हो तो कह।" तब मैंने कहा 'हे माता ! मेरे रोग के कारण दोबार मुझे पति के सुख से वंचित होना पड़ा । अतः ऐसा करो जिससे मैं पति सुख निरंतर पा सकू।' तब उसने औषधि गर्भित लोहे का यह वलय दिया । और कहा "इसको पास में रखने से रोग और विघ्न नहीं आयेंगे। दुष्ट देव दानव, मानव और तिर्यंचों का प्रभाव भी खत्म हो जायगा।" तब मैंने आनंदित होकर उसका सत्कार किया वह गयी। इसी वलय के प्रभाव से मैं नीरोगी हुई और आपका सानिध्य प्राप्त हुआ । अब मेरे लिए आप ही सर्वस्व हैं। मैं आपका ही कल्याण देख रही हूँ। अवसर पर इसे आपको पहनाऊँगी । अब तो आपके मस्तक के नीचे रखती हूँ। अब आपको रतिक्रीड़ा की थकान है, आप सो जाइए। उसने वह वलय बताकर मेरे मस्तक के नीचे रख दिया। मैं उसकी स्नेहभरी बातों से मूढ़ बनकर सो गया । थोड़ी गहरी नींद आयी देखकर उसने वह वलय मेरे गले में डाल दिया। प्रायः करके निद्रा वैरिणी होती है। जब मैं जागृत हआ तब स्वयं को बंदर रूप में देखा। उसको न देखकर मैं उसके पदानुसार
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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