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________________ धर्मरुचि को देखकर मंत्री हर्षित हुआ । उचित सत्कारकर मंत्री ने कहा "भाई । आज मेरे घर कोई जैन साधु भिक्षा के लिए आया था । उसको मेरी दोनों पत्नियाँ मधुरवाणी से निमंत्रितकर दान देने लगी । परंतु उसने कुछ भी नहीं लिया । जो कुछ बहोराने के समय घटित हुआ था वह, तीनों ने मुनि को जो कहा वह भी सुनाकर बोला-' वह तेरा गुरु गया तू उसको पहचानता है?" धर्मरुचि बोला : “वे मुझे सामने मिले । भक्तिपूर्वक वंदन किया और मैंने उनको अच्छी प्रकार से पहचाना ।" “सिन्धुदेश में सौवीर नाम के महापराक्रमी अतिबल नामक राजा की राजसभा में देशान्तर से आनेवाली एक नट मंडली ने सगरचक्री के चरित्र को बताते हए साठ हजार पत्रों से वियोग का स्वरूप कहा । सगरचक्री के पुत्र वियोग की स्थिति का करुण स्वरूप देखकर राजा संसार की दुःखमय अवस्था को समझ गया । उस पर चिन्तनकर प्रबुद्ध हुआ, और अपने बालक पुत्र का राज्याभिषेककर 'धर्माकर' गुरु के पास चारित्र ग्रहण किया । वह राजर्षि ग्रहण शिक्षा, आसेवन शिक्षा को ग्रहण करते हुए बाह्य-अभ्यंतर तप रत बने । तप के प्रभाव से, अप्रमत्तभाव से चारित्र की परिपालना से अनेक लब्धियों के स्वामी हुए। एक बार गुरु ने उनकी योग्यता देखकर एकाकी विहार की अनुज्ञा प्रदान की । वे सिंह समान परिषह-उपसर्ग रूपी मृगों से निर्भय होकर संसार रूपी वन में विहार करने लगे । विहार करते हए एक बार वे गजपुरनगर में आये । उस उद्यान में देवताओं से पूजे गये वे मुनि तप-ध्यान में निमग्न अनेक जीवों को शाता प्रदायक होकर ठहरे ।। वहाँ राजगुणधारक भीम भूप था । उसका मतिसार मंत्री था । वह राज्य भार को वहन करने में राजा के समान था ।
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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