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________________ बैठा रहा । तब उन चोरों ने कहा। अहो आभूषण सहित तू हमारे भाग्य से मिला है। हमारा चरित्र सुनो । हम सुरपुर राजा के सेवक हैं। हमारे अल्प अपराध से राजा ने हमें देश से निष्कासित किये हैं। गुरु के पास धर्म पाये हुए हमने आजीविका का दूसरा उपाय न देखकर चोरी का कार्य आरंभ किया है। परंतु हमने नियम लिया है 'चोरी में राजा के अलावा किसी का धन न लेना । क्योंकि अल्प ऋद्धिवाले के घर चोरी करने से वह दुःखी होता है। राजा दुःखी नहीं होता। और छोटी-छोटी चोरियों में दुर्ध्यान रहता है। अतः लाख रुपये से कम चोरी नहीं करनी। इसलिए हे सत्पुरुष! सत्य बोल । ये तेरे आभूषण कितने मूल्य के हैं ? महान पुरुष असत्य नहीं बोलते, ऐसा हम मानते हैं। तब नृपने सोचा' 'ये चोर स्वयं की आजीविका हेतु आभूषण ले-लेंगे तो ले लेने दो । मूल्य तो जो है वही कहूँगा। पापमूल असत्य तो नहीं बोलूंगा। धन तो जानेवाला है। सत्य धर्म तो स्थिर है। धन से अल्पसुख मिलता है और धर्म से अनंत सुख । ऐसा सोचकर बोला । "मैं राजा हूँ। अश्व के द्वारा लाया गया इस अटवी में आया हूँ। ये| मेरे अलंकार एक करोड़ मूल्य के हैं" ऐसा कहकर राजा ने अलंकार उतारकर दे दिये । तब वे आनंदित होकर आभूषण लेकर चले गये । राजा वन में घूमता हुआ एक तापसाश्रम में पहुँचा । कुलपति के पूछने पर अपना सत्य वृत्तांत कहा । कुलपति ने कहा | "इस वन में एक राक्षस रहता है। वह तापसों के अलावा मनुष्य को खा जाता है। अतः तुम तापस वेष ले लो तो जीवित रह सकोगे। तब राजा ने तापस वेष ले लिया । फलाहारकर स्नान के लिए सरोवर पर आया । तब उसे राक्षस मिला । राक्षस ने पूछा- हे भिक्षु! तू नया कहाँ से आया? मैं प्रतिदिन एक मानव को खाता हूँ और वर्ष में एक बत्तीस लक्षण पुरुष को खाता हूँ।" ऐसा लक्षणवाला नंदीपुर का राजा है। मैं उसे खाना चाहता ४८
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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