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________________ | में तो अधर्म से ही संपत्ति प्राप्त होती है। धर्म से, तो विपत्तियाँ मिलती है। जयानंद ने कहा "जिन को पापानुबंधी पुण्य का उदय है उन क्रूरकर्मी को सुख और जिनको पुण्यानुबंधी पाप का उदय है उनको विपत्तियाँ होती है । परंतु वह परभव अर्जित पुण्य-पाप पर आधारित है। इसभव के पुण्य-पाप का फल तो भवांतर में मिलेगा।" तब दुष्टात्मा सिंहसार भाई पर प्रेम दिखाता हुआ बोला "भाई! प्रेम हर ऐसे विवाद से क्या? किसी विज्ञ को पूछेगे और उसके वचन को प्रमाण भूत मानेंगे ।" जयानंद ने सरलभाव से कहा 'इसी प्रकार हो'। फिर उसने सोचा 'जयानंद राजा और प्रजा में प्रीतिकारक होने से राज्य योग्य यह है, इसकी आँखे शर्त से ले लं, इस विचार से वह बोला कि "शर्त के बिना तो मजा नहीं आयगा। अतः जो हारे वह दूसरे को अपनी आँखें दे दें। जयानंद ने सरल भाव से इसे एक प्रकार की मजाक मानकर शर्त स्वीकार कर ली ।" | जयानंद ने सोचा कि मैं जीतूंगा ही । जीत धर्म की है। पर मुझे उसकी आँखें थोड़ी ही लेनी है । भले ही यह शर्त कर ले । | किसी छोटे गाँव के बाहर ग्राम ठाकुर को देखकर सिंहसार ने उसको नमस्कार किया । और कहा-"मैं पाप से सुख मिलता है और यह धर्म से सुख मिलता है ऐसा कहता है। ऐसा व्यंग में बोलकर कहा आप कहो-"इसमें सत्यवादी कौन है ? ठाकुर सिंह की माया को जाने बिना और उसके नमन आदि से प्रभावित होकर बोला 'आप सत्यवादी है।" फिर दुष्ट बुद्धिवाला सिंह भाई के साथ चला । थोड़ी दूर जाकर बोला भाई! शर्त हार गये। अब आँखें दे दो ।" "जयानंद ने कहा अधर्मी ये ग्रामवासी क्या जानते हैं ? कूटसाक्षी देने में उनकी जीभ कहीं स्खलित नहीं होती । अतः हंस और काक की कथा सुनकर इन ग्रामीणों पर विश्वास न कर । सिंहसार ने पूछा "कौन हंस कौन कौआ ?।"
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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