SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विद्या से अग्नि को बुझा दी। दुर्ग को मिट्टी के घड़े के समान चूर्ण कर दिया । दोनों राजाओं का तुमुल युद्ध हुआ । उस युद्ध | में चक्रायुध ने शतकण्ठ के साथ विद्याशस्त्रों से युद्ध में उसके एक-एक शस्त्र का खंडनकर उसके मस्तक पर वज्रमुद्गर से प्रहारकर मुर्छित कर दिया । फिर उसे एक वृक्ष के साथ बांधकर, रक्षकों को वहाँ रखकर, सेना को आश्वस्तकर चक्रायुध सो गया। शतकण्ठ सोचने लगा "इस लोक में एवं परलोक में जीव स्वकृत कर्म से ही सुख-दुःख भोगते हैं। अगर उस समय ध्यानस्थ चक्रायुध को मैंने उपद्रवकर नागपाश से नहीं बांधा होता तो आज मेरा पराभव नहीं होता । इस पराभव में दोष मेरा ही है ।" । सज्जन व्यक्ति वही है जो दुःख के समय अपने अपराधों को देखे और सुख के समय दूसरों के उपकार को देखें । उसने सोचा इस जगत में आरंभ अत्यन्त दु:खदायी है। मैं इस राज्यादि लक्ष्मी को छोड़कर चारित्र ले लूं । यह सोचकर उसने उसी समय पंचमुष्टि लोच कर दिया । तब भाव यति जानकर देव ने उसके बन्धन छेदकर मुनिवेश अर्पण किया । वह वहीं कायोत्सर्ग में स्थित रहा । चक्री को रक्षकों ने सारा वृत्तांत कहा । प्रातः उसने मुनि को वंदना की । स्तुतिकर, क्षमापनाकर, शतकण्ठ के पुत्र को राज्य देकर उसके द्वारा प्रदत्त सौ कन्याओं से विवाहकर अन्य द्वीपों के राजाओं को जीतकर उनके द्वारा प्रदत्त कन्याओं से विवाहकर वैताढ्यपर्वत पर आया। वैताढ्य की दक्षिण श्रेणी में एक महासरोवर के किनारे पर ठहरा । वहाँ क्रीडा निमित्त आयी हुई एक हजार कन्याओं को अपने पर अनुरक्त जानकर शादी कर ली । उन कन्याओं के रक्षकों ने उनके पिताओं को सूचना दी । वे युद्ध के लिए आये। उनको चक्री ने हरा दिया । उन खेचरों ने दक्षिणश्रेणि के मुख्य खेचरराजा रथनुपुर नगर के वह्निवेग को समाचार दिये । उसने चक्रायुध को दुत द्वारा कहलवाया
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy