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________________ डाल दिया था, सो पूजा का अवसर छोड़ दिया ।" इस वचन से वह भी क्रुद्ध होकर पुष्पभार को वहाँ छोड़कर देशान्तर जाकर, तापस के संसर्ग में आकर, तापस हुआ । नन्दन ने स्वयं पुष्प ले जाकर राजा को समर्पित किये । राजा की ओर से अधिकमान पान लक्ष्मी की वृद्धि से अधिकाधिक जिन पूजा में वृद्धि की । वह मालि नन्दन का जीव आयु पूर्णकर तू मंत्री हुआ। वे ही दोनों पत्नियाँ तेरी पत्नियाँ हुई । सुकंठ तापस पुरोहित हुआ । पूर्व के वैर से उसने तुझे कैद में डलवाने का कार्य किया । जो वचन से बंधा वह कर्म भी साक्षात् भोगना पड़ता है । इससे हे भव्यात्माओं । पांचों इंद्रियो के विकारों का संवर करो । यह सुनकर मंत्री को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। मंत्री ने कहा हे भगवंत ! आपने जो कहा, वह सत्य है । मैंने वैसा ही देखा । अव्यक्त जिनपूजा का यह फल है तो समझपूर्वक जिन पूजा, जिनाज्ञा पालन का फल कितना ?" इस प्रकार चिन्तन करते मंत्री और राजा अधिक भक्ति परायण हुए और एक मात्र वचन के पाप से बहुत फल श्रवण से संवेग को प्राप्त हुए । भगवंत को वंदनकर सभी अपने-अपने घर गये । मंत्री पत्नियों को भी जातिस्मरण ज्ञान हुआ । वे भी धर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धावान् हुई । क्रमशः राजा और मंत्री को अनेक पुत्र हुए और अनेक कन्याओं से विवाह किया । एक बार दोनों ने वैराग्यभाव से प्रेरित होकर अपने-अपने पुत्रों को राज्य एवं मंत्री पद देकर ब्रह्मचर्यपालन में रत हुए । वे दोनों एक बार पौषध में थे नगर में आग लगी । जल, धूल आदि से बुझाने का प्रयत्न करने पर भी पौषधागार तक पहुँच गयी । पौषध में स्थित राजा का परिवार भयभ्रान्त होकर बोला अग्नि पास में आ गयी हैं । इसलिए बाहर आओ । ऐसा सुनकर राजा और मंत्री ने
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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