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________________ रानियाँ और प्रजाजन मिलाकर लाखों लोगों ने चारित्र ग्रहण किया। चक्रायुध मुनि भगवंत ने सभी साधुओं के साथ विहार किया । साध्वियों ने भी वहाँ से विहार किया । जयानंद राजर्षि ग्रहणआसेवन शिक्षा ग्रहणकर द्वादशांग धारी हुए । श्रीचक्रायुध आचार्य ने उन्हें आचार्यपद दिया । पृथक् विहार की आज्ञा प्रदान की । उन्होंने पृथक् विहारकर अनेक भव्यात्माओं को प्रतिबोधितकर प्रव्रजित किये । विहार करते हुए पुनः गुरुवंदन के लिए आये । तब दोनों आचार्य विहार करते लक्ष्मीपुर के पास शाखापुर में आये। अपना आयु समाप्त जानकर गच्छभार जयानंद राजर्षि को दे दिया । श्रीचक्रायुधसूरि ने पादपोपगमन अनशन लिया । तीस दिन में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और अंतर्मुहूर्त में मुक्ति प्राप्त की । देवों ने महोत्सव किया । उस समाचार को सुनकर विरागवान होकर क्षपक श्रेणि पर आरोहण कर जयानंद राजर्षि केवलज्ञानी हुए । उस समय देवताओं ने स्वर्णकमल की रचना की। उस पर बैठकर श्री जयानंद केवलि ने धर्मोपदेश दिया। कुलानंद राजा भी वंदन के लिए आया। उसने द्वादश व्रत ग्रहण किये । विहार करते हुए अनेक लोगों को दीक्षा दान, अणुव्रत दान और सम्यक्त्वादि का दान देते हुए, धर्म प्रभावना विस्तारित करते हुए विचरे । अपना निर्वाण समय जानकर श्री शत्रुजय तीर्थपर आये । छ-उपवास से पादपोपगमन अनशनकर शाश्वत सुख के भोक्ता हुए । श्री जयानंद राजर्षि का चरित्र श्री मुनि सुंदरसूरिरचित पद्यबन्ध के आधार से पंडित पद्मविजयजी गणि द्वारा रचित गद्यबन्ध चरित्र के आधार से हिन्दी में जयानंदविजय ने लिखा है। इसमें युद्ध का वर्णन, उपदेश का वर्णन संक्षेप में लिया है। (श्री जयानंदकुमार के आयुष्य के विषय में जो वर्णन है उसका समाधान ज्ञानी गम्य है) जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो, तो मिच्छा मि दुक्कडं ॥
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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