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________________ सेवा में रहा । जयानंद ने भी उसका उचित सम्मान किया । दोनों | भाई कुछ दिन एक साथ रहे । एकबार राजाधिराज जयानंद राजा और शतानंद राजा सपरिवार नगर से बाहर जा रहे थे। वहाँ दूसरे मार्ग से 'आओआओ, शीघ्र चलो,' इत्यादि आवाज करते लोगों को पूजा सामग्री लेकर जाते और रिक्तथाल लेकर आते देखकर, एक व्यक्ति को अपने पदाति द्वारा बुलाकर पूछा "आप लोगों का आगमन कहाँ हो रहा है?" तब उसने कहा "स्वामिन् ! मनोरम नामक पूर्व दिशा के उद्यान में जयनाम का तापसों का अग्रणी आया है । वह समतावान्, इंद्रियदमी, दुष्कर तप रूप में पंचाग्नि तप को सहन कर रहा है । यह निस्पृह है, शत्रु-मित्र में समभाव धारक है, तृण और मणि को समान माननेवाला है, नित्य तीनबार स्नान करता है, जटा मुकुटधारी है, चमड़े के वस्त्र पहनता है, कंद-मूल और फल का भोजी है, सुबह-शाम ध्यान करता है, सर्वशास्त्र का ज्ञाता है, ऐसे सरल महात्मा के गुणों का वर्णन करने में वाक्पटु भी समर्थ नहीं है। ऐसे महात्मा की भक्ति के लिए ये लोग जा रहे हैं, और भक्ति करके लोग आ रहे हैं।" इस बात को सुनकर राजा ने सोचा "यह भवस्थिति विचित्र है। प्राणियों का अज्ञान दुरूच्छेद है, घने बादलों से घिरे आकाश समान है, सर्व सुखहर है, सन्मार्ग पर आवरणकारक है, दुर्दशा का मूलकारण है, तिर्यंच नरकगति प्रदायक है, सब पाप का कदलीगृह है, सभी मिथ्यात्व का कंद है, विषय कषाय की उत्पत्ति का स्थान है। मेरे पितृव्य अज्ञान-अंधकार से ग्रसित है। मुझे इनको शीघ्र सुधारना है । इसके लिए प्रज्ञप्तिविद्या को पूछकर उपाय करना है। उसका स्मरणकर उसे पूछा । उसने आकर कहा-'यह तापस पंचाग्नि तप तप रहा है' । पूर्व दिशा के काष्ट में सर्प, दक्षिण दिशा के काष्ट में सरट,
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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