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________________ प्रार्थना के भय से पहले ही बोला “हे भ्रातः ! तुमने तो दो उत्सव के लिए निमंत्रण दिया है एक परोपकार, दूसरा दुष्टनिग्रह । मुझे तो इसमें आनंद है । मैं उस देव को जीतकर तेरी प्रिया को शीघ्र छुड़वाऊंगा।" फिर वे सभी वज्रकूट के शिखर पर आये । कुमार उच्च आवाज से बोला 'रे देवाधम! परस्त्री का अपहरणकर सर्प के समान बिल में क्यों घुसा है? यदि शक्तिवान् है तो मेरे साथ युद्ध के लिए सज्ज हो जा, स्त्री को अर्पण कर। नहीं तो इस पर्वत, भवन आदि को चूर्णकर, तेरा निग्रहकर, उस स्त्री को ले जाऊँगा । ऐसा तीन बार कहने पर भी कोई देव न आया, तब उसने कामाक्ष प्रदत्त वज्राभ मुद्गर से उस शिला को चूर्णकर दी। वह उस पर्वत पर घूम-घूमकर कम्पायमान करने लगा । घूमता-घूमता वह सुरालय के समीप आया । और उसके नीचे जाकर उसने घोर नाद किया। उस भयंकर नाद को सुनकर भवन को कम्पायमान देखकर सोचा'यह कौन है?' विभंगज्ञान से कुमार को देखकर सोचा 'यह क्या है? मानव और मेरे सामने?' क्रोधित होकर उसे ललकारा और कहा "मरने के लिए यहाँ क्यों आया है? कुमार ने कहा "रे मूर्ख! मूषक के समान परस्त्री हरणकर बिल में क्यों घूस गया है? अब तू कहाँ जायगा? या तो चंद्रगति की पत्नी को दे दे, | या युद्ध के लिए तैयार हो जा । पर्वत के समान इस मुद्गर से तुझे भी चूर्ण करने में मैं समर्थ हूँ । देव ने कहा "रे! नरडिंभ ! सिंह के पास से मृग के समान तू मेरे पास से उस स्त्री को छुड़वाना चाहता है । निष्कारण क्यों मरता है? चला जा ।'' दोनों में भयंकर युद्ध छिड़ा । भयंकर शस्त्रों से दोनों ने युद्ध किया । मुद्गर, गदा, त्रिशूल, असि, आदि अनेक शस्त्रों के प्रयोग में कुमार
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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