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________________ प्रत्युपकार नहीं हो सकता । यह कुछ लेता भी नहीं है । राजा ने उसके घर दशहजार घृत के घड़े और दशहजार धान्य के मूढ़े भेजे । उनको अपने व्रत से अधिक जानकर व्रतभंग भीरू कोशल ने कहीं जाने की आवश्यकता से देशल से कहा । पांच-पांच हजार लेकर बाकी लौटा देना । अपना व्रत मत तोड़ना । वह इतना कहकर चला गया। देशल ने धन लुब्ध और धर्म में शिथिल होने से पांच-पांच हजार घर में रखें और पांच-पांच हजार दुसरे सेठ के वहाँ अपने नाम से रखवा दिये । इस प्रकार उसने व्रत को मलीन किया । देशल आयु पूर्णकर स्वल्प ऋद्धिवाला व्यंतर हुआ, वहाँ से दरिद्र विप्र और वहाँ से तू वणिक हुआ । व्रत भंग के फलरूप में प्रयत्न करने पर भी तुझे इच्छित धन नहीं मिला । कोशल निरतिचार श्रावकधर्म का पालनकर, धर्मगुप्त गुरु के पास में प्रव्रज्या ग्रहणकर, निरतिचार पालनकर, सत्रह सागरोपम आयुवाला (सप्तम देवलोक में) देव हुआ । इस प्रकार पंचमअणुव्रतकी आराधना-विराधना के फल को सुनकर सबको सम्यक् प्रकार से उसका पालन करना चाहिए। फिर उस देव ने अवधिज्ञान से अपने भाई को दु:खी जानकर देव ऋद्धिका दर्शन करवाकर, उसे प्रतिबोधित कर दीक्षा ग्रहण करवायी । फिर वह देवलोक में गया । दोनों ने प्रीतिपूर्वक जिनार्चन किया और तीर्थयात्रादि से पुण्यार्जन किया। कोशल देव पूर्ण सुख भोगकर वैताढ्यपर्वत पर मणिमंदिर पुर में मणिधर राजा की पत्नी मणिमाला की कुक्षी से | मणिशेखर नाम से पुत्र रूप में जन्मा । यौवन वय में बत्तीस कन्याओं से पाणिग्रहण करवाया । वह विद्यावान् भोग सुख में रमण करता था। इधर देशल का जीव तू चंद्रगति हुआ । जो तेरी पूर्वभव की पत्नी गुणसुंदरी थी वह चारित्र लेकर चौथे देवलोक में गयी । वहाँ से किसी सेठ के घर चंद्रमुख पुत्र हुआ। वह चारित्र लेकर पांचवें देवलोक में देव हुआ। वहाँ से यह तेरी पत्नी
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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