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________________ भक्ति की । उन्होंने तुष्ट होकर उसे 'हेमकूटगिरि' दिया। फिर जयानंद, पवनवेग वज्रवेग आदि विद्याधर सभी हेमपुर में आये । इधर योगिनियाँ जयानंद के शीलधर्म से आकर्षित होकर उसके गुणगान गर्भित गीत, रास आदि बनाकर गाती रहती थी ।" एकदिन जयानंदकुमार ने पवनवेग से जाने के लिए आज्ञा मांगी । पवनवेग ने सोचा 'यह कन्या के पाणिग्रहण की इच्छा नहीं करेगा । परंतु मुझे कन्या देनी है इसे ही। अब मैं इसे जिनदर्शन पूजन के निमित्त से रोक लूं ।' पवनवेग ने कहा "इस वैताढ्यपर्वत पर अनेक शाश्वत जिनबिंब है। उनकी पूजा भक्ति तो कर लीजिए। वह भी इसके लिए तैयार हो गया, तभी एक विमान आया । उसमें से एक विद्याधर उतरा । उसने जयानंद को प्रणाम किया। उसने पूछा 'तुम कौन हो ? यहाँ आने का कारण क्या ? " ओ! खेचर वह उत्तर देना प्रारंभ करे उसके पूर्व पवनवेग ने कहा राज! चंद्रगति ! तुझे बहुत समय के बाद देखा है। शोक मय क्यों है ? हे दक्ष ! इस राजा को कह दे । यह वीर है । सभी के दुःख हरण करनेवाला है । ऐसा सुनकर उस विद्याधर ने कहा " "हे प्रभु! मेरा वृत्तांत सुनो । इस वैताढ्य की दक्षिण श्रेणि में चंद्रपुर का मैं चंद्रगति नामका राजा हूँ। मेरी प्रिया चंद्रमौलि गौरी रंभा के समान स्वरूपवान है। एक पुत्री चंद्रसुंदरी है। उसके योग्य विद्याधर कुमार देखे, परंतु कोई न मिला । एकबार मैं मेरी पत्नि के साथ मान सरोवर पर क्रीड़ा करता था । उस समय उसका अपहरण हो गया । मैं युद्ध करने पीछे दौड़ा । उसने मेरे मस्तक पर वज्राघात सम मुष्टि प्रहार किया । मैं नीचे गिर गया। फिर उस को खोजा, पर न मिला। फिर चक्रायुध विद्या के बल से उसे खोजेगा, इस आशा से उसे कहा, परंतु उसने भी कोई प्रयत्न न किया । पुरुषों के भाग्य फलते हैं, स्वामी की सेवा आदि नहीं । एकबार मैंने मेरे नगर के १६०
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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