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________________ गुरु ने कहा" "अपनी इच्छा पूर्ण करने में किसी का प्रतिबंध स्वीकार मत करना ।" राजा ने महल में आकर, राजवर्ग को समझाकर, पुत्र के अभाव से कुमारेन्द्र का राज्याभिषेककर, कुमार द्वारा किये गये निष्क्रमणोत्सव पूर्वक चारित्र ग्रहण किया । जयानंद राजा और प्रजा गुरु भगवंत और नये साधु-साध्वियों को वंदनकर यथास्थान आये। श्रीपतिमुनि सिद्धान्त का अध्ययनकर गीतार्थ हुये। बारह प्रकार के तप द्वारा कर्मक्षय करते हुए गुरु ने आचार्यपद दिया। उनके साथ प्रव्रजित मुनियों का परिवार उन्हें सोंपा । वे श्रीपति आचार्य पृथ्वीतल पर अनेक भव्यात्माओंका कल्याणकर केवल पाकर मोक्ष गये । जयानंद राजा विविध देशों को जीतकर राज्य संपत्ति और धर्म संपत्ति की वृद्धि करता रहा । अनेक लोगों को जैनधर्म प्रति श्रद्धावान बनाता हुआ समय व्यतीत कर रहा था। उद्यानपालक ने आकर एकदिन कहा "आपके पिताजी अल्प परिवार सहित उद्यान में पधारे हैं। सुनते ही उसे दान देकर पैदल ही पिताजी को लेने चला । उद्यान में जाकर हर्षाश्रु द्वारा उनके चरण प्रक्षालन किये । उन्होंने उसे गाढ़ आलिंगन देकर मस्तक सूंघा । जननी ने भी सतश: आशीर्वाद दिये । परस्पर कुशल प्रश्न किये गये । यह सुनकर तीनों पुत्र वधू भी वहाँ आयी । सास-ससुर के चरणों में नमस्कार किया। दोनों ने उनको भी आशीर्वाद दिये । फिर महोत्सवपूर्वक नगर प्रवेश करवाया । पिता का छत्रधर पुत्र हुआ । राजसभा में बिठाकर स्वयं पादपीठ पर बैठकर चरणों में प्रणाम किया । राजसभा भी अपने राजा के विनयगुण से अत्यंत खुश हुई । प्रजा ने प्राभृत रखा। फिर अर्हत् पूजा, भोजनादि से निवृत्त हुए । अवसर पाकर कुमार ने पिता से पूछा “आपका आकस्मिक आना कैसे हुआ!" पिता ने अश्रुपूर्वक कहा "मेरा भाई सिंह को राज्य देकर तापस हुआ । उसके साथ
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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