SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोचा कुमार तो स्वजनों को मिलने के लिए चला जायगा । मैंने इसके साथ कैसा व्यवहार किया? मैं इस चिंतामणी रत्न समान पुरुष को पहचान न सका । इसको मारने के लिए तत्पर हुआ । मुझ जैसा पापी कौन? मुझे जीने का अधिकार भी नहीं हैं। ऐसा सोचकर स्वयं की जीवन लीला समाप्त करने के लिए तलवार उठायी । मंत्री की चतुर नजर ने उसकी मानसिक स्थिति जान ली। शीघ्र ही गर्दन पर उठायी हुई तलवार पकड़ ली। मंत्री ने कहा "क्या कर रहे हो?" राजा ने कहा "मुझ जैसे पापी के लिए मृत्यु के बिना कोई शुद्धि नहीं है ।'' मंत्री ने कहा-"राजन् ! पाप की शुद्धि मृत्यु से नहीं होती । शुद्धि तो तप से होती है । सद्गुरु दर्शित प्रायश्चित्त से आत्मशुद्धि कीजिए।' फिर भी राजा का मन शांत न हुआ । उसने भोजन करने को भी मनाकर दिया। राजा पलंग पर पड़ा रहा । रानियाँ भी उदास हो गयी। ये समाचार पुत्रियों को मिले । वे भी वहाँ आयी। राजा को कहा "इस में आपका दोष नहीं है। दोष उस नीच का है। पिता ने कहा पुत्री ! मैं तुम्हें मुँह दिखाने लायक नहीं रहा हूँ। मैंने मेरी पुत्रियों के वैधव्य का भी विचार नहीं किया । मैं तुमको और जामाता को मुख दिखाने लायक नहीं रहा ।' पुत्रियों ने कहा "पिताजी ! आपका तो हम पर अत्यंत उपकार है आपने हमें पाला, पोसा, पढ़ाया, प्रतिज्ञा पूर्ण करवायी, यह सब आपकी कृपा का फल है और भ्रांति में तो कई विद्वान भी भूल जाते हैं।" पुत्रियों ने अपने पति को भेजा। जयानंदकुमार ने भी आकर श्वसुर | राजा को मधुर शब्दों से समझाया । और स्वकार्य में प्रवृत्त होने का अनुरोध किया । राजा ने कहा "कुमार ! इस जगत में तुमारे समान विवेकी और मुझ समान अविवेकी कोई नहीं होगा। अब तुम्हारे कथन से मैं सब कार्य व्यवस्थित करूँगा । आप खल संसर्ग मत करना । कुमार "ओम्' कहकर राजा को नमस्कारकर अपने स्थान
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy