SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दानी हूँ, इसलिए राजा ने मुझे निकाल दिया । दान के व्यसन को पूर्ण करने के लिए मुझे चोरी करनी पड़ी है। यह पुण्य के बल से सभी कलाओं में प्रवीण हो गया, ये सारी कलाएँ मैंने ही इसे पढ़ायी हैं । फिर यह मुझसे दूर हो गया । कहीं औधषि को प्राप्तकर यहाँ आया । यह कलाओं में आपकी पुत्रियों को जीतकर मौजकर रहा है। इसने और भी राजकुमारियों से शादी की है।" उसने संक्षेप में अपने पल्ली राज्य की कथा कही । " इसने मुझे पहचानकर छुड़ाया । और मुझसे कहा " मेरी वास्तविकता कहीं प्रकाशित न करना । परंतु आप पर की भक्ति के वश गुप्त बात भी आप को करनी पड़ी। अब आप सोचें विचारें कि क्या करना चाहिए ।" इतना सुनकर क्रोध, विस्मय, खेद से व्याकुल हुए राजा ने उसे जाने को कहा। फिर सोचा 'जगत में मेरी मजाक हो, उसके पूर्व इसे खत्म कर दूं। जिससे मेरी कीर्ति में दाग न लगे । इस प्रकार निर्णयकर अपने विश्वस्त दो सैनिकों को बुलाकर आदेश दिया 'आज रात को इतने बजे राजमार्ग पर अश्व पर जो व्यक्ति आता हो उसे खत्मकर देना । किसी से न कहना । उसको विदाकर, दूसरे आदमी को कुमार के पास रात को तीसरे प्रहर में बुलाने भेजा । आदमी ने आकर कहा "राज्य की गहन विचारणा के लिए आपको अभी इसी समय आने हेतु कहा है । परराष्ट्र की सेना आनेवाली है, ऐसे समाचार आये हैं ।" " कुमार उस समय जाने हेतु तैयार हुआ तब दोनों पत्नियों ने कहा "ऐसे समय में आपको जाना हमें उचित नहीं लगता । इस समय आप आपके बड़े भाई को भेजो । वे भी आपके ही भाई हैं । तब उसे भी उचित लगा। उसने सिंहसार को जाने के लिए कहा । वह यह सोचते हुए चला कि ! आज दोपहर में हुई चर्चा के विषय में और विचारणा करने के लिए मुझे बुलाया है । ' मार्ग में सैनिक उस पर टूट पड़े। कोलाहल सुनकर कुमार के सैनिक वहाँ गये । १४६
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy