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________________ जो हारे थे, वे कुमार भी आनंदित हुए । सभीने मिलकर कहा "हे अलक्ष्य स्वरूपवाले महाभाग! हमको क्षमा करो। कुमार ने अपने द्वारा उत्पन्न दुःख की क्षमा याचना की । कन्याएँ भी यह वृत्तांत जानकर ज्यादा खुश हुईं । राजा ने कुमार को रहने के लिए महल दिया। एकदिन कन्याओं के पाणिग्रहण की बात की । तब कुमार ने कहा "मुझे कन्याओं की आवश्यकता नहीं है। आप किसी भी कलाविद से इनकी शादी कर सकते हो!" फिर राजा के अत्याग्रह के कारण मौन रहा। शुभमुहूर्त में विवाह संपन्न हुआ । फिर नवोढ़ा के साथ भौतिक भोग भोगते हुए समय व्यतीत करता था । उसके प्रभाव से राजा की राज्यलक्ष्मी भी बढ़ रही थी । पुण्य के प्रभाव से अकेला भी जयश्री को प्राप्त करता हुआ रह रहा था । एकबार कुमार क्रीड़ार्थ जा रहा था । वहाँ कुमार ने गर्दभ पर बैठे हुए (बार-बार ताड़ना कराता हुआ) एक पुरुष को वध्यस्थान पर ले जाते हुए देखा । कुमार ने सैनिकों से पूछा । सैनिकों ने कहा “ईश्वर श्रेष्ठि के घर चोरी करते हुए पकड़ा गया है। इसे राजादेश के कारण वध्य के लिए ले जाया जा रहा है।" कृपालु कुमार ने दया कर राजा से उसे छुड़वा दिया । अपने घर ले जाकर उसे स्नान भोजनादि से भक्तिकर पूछा “तुम कौन हो? चोरी क्यों करते हो?" उसने कुमार को पहचान लिया था । डर के मारे नहीं बोल रहा था। कुमार ने अभय दिया तब गद्-गद् वाणी से बोला "मेरा चरित्र अश्राव्य है। मैं क्या कहूँ?" कुमार ने स्वर से और चेहरे से पहचान लिया कि यह सिंहकुमार है । कुमार ने कहा "भाई! तेरी ऐसी हालत कैसे? तेरा पल्ली राज्य कहाँ गया? तेरे शरीर पर ये घाव कैसे?" वह भी पक्का मायावी था । अपने अपराध को छुपाकर बोला "देवी के मंदिर में तुम्हारे सोने के बाद, मैंने सिंह को देखा । तेरी रक्षा के लिए उसे भगाकर दूर चला गया।
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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