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________________ होना हो तो जैनधर्म स्वीकार करो। अपना राज्य भोगो । रूष्ट | प्रिया को मनाओ । पद्मरथ ने कहा 'आप के कहने अनुसार करूंगा। | इतने में विजया आयी और कहा " 'तूं हि शंकर' इत्यादि समस्या किसकी सत्य हुई? पद्मरथ ने सोचा इसने कैसे जाना? शायद कमला के पास रहने से जाना होगा ।' फिर उसने कहा 'अगर | मैं शंकर होता तो मेरी यह स्थिति न बनती । यह सब स्व| स्वकर्म से ही होता है । विजया ने कहा 'तो फिर पुन्य क्यों नहीं करते ? पुत्री का हाल मेरे पति से पूछ' ये सब बता देंगे। | राजा ने पूछा, उसने लग्नादि का आडंबर कर कहा । शीघ्र मिलेगी। | फिर कहा । इसको और मुझको जानते हो! फिर अपना भिल्लरूप किया । विजया का स्वाभाविक रूप किया । सभा आश्चर्य में गिरि । तब पद्मरथ ने सोचा ‘इन कार्यो से यह विप्र कैसे हो सकता है?' पद्मरथ ने कहा "भद्र! जैसे भिल्लरूप किया वैसे स्वाभाविक रूप करो । कितने काल तक हमें मोहित करोगे । माया विप्र ने कहा "जब तुमने अपनी पुत्री को चूर्ण से अंधी | की थी । उसे मैंने सज्ज की । उस समय कोप से प्रतिज्ञा की थी कि जब तक इस राजा को भयंकर सजा देकर प्रतिबोधित न करूँ, तब तक कहीं पर भी स्वस्वरूप में नहीं रहूँगा । विमोह से आपको दु:खी किये । अतः क्षमा करना । अब मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण हूई ।" औषधि के प्रयोग से वह स्वरूपस्थ हो गया। हस्तलाघवता के कारण औषधि प्रयोग को कोई देख न सका । उसके अलौकिकरूप को देखकर सभी रोमांचित हुए और सोचा 'जो नाटक इसने किया था, वही यह जयानंदकुमार है।' कमलसुंदरी ने यह बात सुनकर, आकर उसके गले में वरमाला पहनायी। उस समय सभी ने हर्षध्वनि की। हर्ष कोलाहल सुनकर कमला भी वहाँ आयी। विजयसुंदरी माता के चरणों में गिरी। वह भी उसको
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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