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________________ निन्दा जन्य ब्रह्म हत्या का पाप क्यों लूं? इस प्रकार तिरस्कार युक्त वचन सुनकर क्रोधित मायावी विप्र बोला "हे राजन् ! पराक्रम में क्षात्रत्व या ब्राह्मणत्व हेतु नहीं है। मैं जो हूँ सो हूँ। तुझे कुल से क्या? तेरे पास में निन्दा है, मेरे पास पराक्रम है। तेरे राज्य में दुर्भिक्ष होगा तो मैं सुभिक्ष कर दूंगा। तेरा राज्य लेनेवाले मुझे ताम्र पात्र की क्या आवश्यकता? तेरे प्राण जाते ही विधि(भाग्य) सर्वभिक्षा दे देगी। पुत्री का वध करनेवाले अय कौल, तुझे ब्रह्महत्या का भय कहाँ से? अहो पुत्री को अन्धत्व देकर तूने तेरा सर्व इच्छित पूर्ण कर लिया है। ऐसा विवेक हीन तू श्राद्धपुत्री की इच्छा करता है। तू क्षत्रिय है, तो युद्ध में पराक्रम बता । उत्तम पुरुष अपने गुण फल से बताते हैं, वाणी से नहीं। इस प्रकार के वचनों को आग में घृत की आहुति मानता हुआ पद्मरथ बाणों की वर्षा करने लगा। ब्रह्मवैश्रवण और पद्मरथ का युद्ध भयंकर रूप से चला। ब्रह्मवैश्रवण के निषेध को अस्वीकारकर कमलप्रभ की सेना युद्ध में भाग लेने लगी। ब्रह्मवैश्रवण ने पद्मरथ को थका दिया। उसके पास शस्त्र न रहा तब विप्र ने उसे मल्ल युद्ध के लिए निमंत्रण दिया। दोनों मल्ल युद्ध करने लगे । ब्रह्मवैश्रवण ने उसे मूष्टि का प्रहारकर मूर्च्छित कर दिया। कमलप्रभ राजा के सैनिकों ने उसे बांध दिया। ब्रह्मवैश्रवण ने पद्मरथ की सेना को आश्वस्त की । ब्रह्मवैश्रवण ने सासू और बहू के वचन यादकर पद्मरथ के मस्तक पर औषधि रखकर शीघ्र स्वस्थ कर दिया । उसे पिंजरे में डलवा दिया। स्व-पर दोनों सेनाओं के सैनिकों को वह औषधि के प्रभाव से स्वस्थ कर देता था। सभी विस्मित होकर ब्रह्मवैश्रवण की प्रशंसा करने लगे। कमलप्रभ राजा हर्षित होकर मायावी विप्र का दृढ आलिंगनकर उसकी प्रशंसा करने लगा "अहो शौर्य! अहो धैर्य! अहो परोपकार, अहो गंभीरता! तेरे समान इस विश्व में अन्य कोई नहीं है। मैं मानता हूँ कि विधाता ने इस जगत में एक तुझे ही बनाया है। पूर्व पुन्य के
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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