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________________ [40] कुवलयमाला-कथा श्रीधर्मनन्दन गुरु बोले-“हे पुरन्दरदत्त राजन्! मान रूपी दुर्जय हाथी धर्मरूपी उद्यान को उजाड़ देता है। इसलिए उसकी रक्षा के लिए आत्मबल प्रगट करके यत्न करना चाहिए। क्रोध के त्याग देने पर भी, जब मनुष्य संसार में मानरहित होता है, तभी उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य अपना भला चाहता हो, उसे मानरूपी पर्वत को कोमलतारूपी वज्र की धार से सदा भेदना चाहिए। पद्मोच्छेदन की लालसा रखने वाला अहङ्कार, नदी के पूर की तरह दोनों कुलों को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। दर्परूपी सर्प से डसे हुए मनुष्य की बुद्धि जड़ हो जाती है, जिससे वह सामने बैठे हुए गुरुजनों को भी नमस्कार नहीं करता। मान से जिसकी आँखें मूंद जाती हैं, वह सन्मार्ग को नहीं देख सकता। फल यह होता है कि वह संसाररूपी कुंए में गिरता है। उसके लिए यही योग्य है। हे राजन्! मान रूपी महागजेन्द्र के वश होकर जीव इस आदमी की तरह मौत की अनी पर बैठे हुए- मरणोन्मुख-अपने पिता की, अपनी माता की और अपनी पत्नी की भी उपेक्षा करता है।" मुनिराज की यह बात सुनकर राजा ने कहा- "हे भगवन् ! यह सभा बहुत से आदमियों से भरी हुई है। तो इस आदमी की तरह कहने से हम उसे कैसे पहचान सकते हैं?" भगवान् बोले- "जो हमारे बायें हाथ की जीमनी बाजू बैठा है इसे देखो। उसने दोनों भौहे-ऊँची चढ़ा रक्खी है? उसकी छाती चौड़ी और गर्व के भार से दृष्टि मिच गई है। उसका शरीर तपे सोने की तरह लाल हो रहा है और उसके नेत्र भी कुछ-कुछ लाल हैं। ऐसे स्वरूप से वह ऐसा जान पड़ता है मानो मान की साक्षात् मूर्ति ही हो। वह यहाँ आया हुआ है। उसने अमान - अपरिमित - मान से जो काम किया है, सो सुनो द्वितीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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