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________________ [26] कुवलयमाला-कथा दिया। घोड़ा मर गया। घोड़े को मरा देख कुमार ने विचारा 'बड़े आश्चर्य की बात है। यह घोड़ा ही था तो आकाश मार्ग से क्यों चला? यदि वास्तव में घोड़ा न था तो मेरे प्रहार से मर क्यों गया?' कुमार इस प्रकार विचार कर रहा था कि वर्षा ऋतु के मेघ की गर्जना सरीखा किसी का गम्भीर और धीर शब्द सुनाई पड़ा। शब्द ये थे- 'निर्मल चन्द्रमा के समान चन्द्रवंश के भूषण कुवलयचन्द्रकुमार! मेरी बात सुनो। तुम्हें अभी दक्षिण की ओर दो कोश और जाना है और वहाँ पहले कभी न देखा हुआ आश्चर्य देखना है ये शब्द सुनकर कुमार ने सोचा- 'यह मेरा नाम और गोत्र कैसे जानता है? शायद यह दिव्यवाणी हो और मेरे आगामी हित के लिए दक्षिण की ओर जाने की प्रेरणा करती है। इसलिए उसका उल्लंघन करना उचित नहीं है, क्योंकि देव और मुनि बिना हेतु ही दयालु और अतीन्द्रिय ज्ञानी होते हैं।' कुमार ऐसा विचार कर दक्षिण दिशा की ओर चला। दो कोस जितना रास्ता तय करके वह इधर-उधर (चारों ओर) देखने लगा। उसे सामने अनेक पर्वतों, वृक्षों, शिकारी जानवरों और लताओं(वेलों) के मण्डपों के कारण बहुत घनी विन्ध्याटवी दिखाई दी। वह अटवी पाण्डवों की सेना के समान अर्जुन से संशोभित थी, राज्यलक्ष्मी के समान बड़ेबड़े हाथियों से युक्त थी और किसी बड़ी से नगरी के समान शाल सहित थी। कुमार ने विचार किया 'निस्सन्देह यहाँ इन्द्रियों को वश में करने वाले और दिव्य ज्ञान द्वारा सब पदार्थों को जानने वाले कोई महात्मा महर्षि होंगे, जिससे कि उन उपशान्त भगवान् के प्रभाव से स्वभाव से विरोधी प्राणी भी आपस में स्वाभाविक स्नेह वाले हुए जान पड़ते हैं।' __इस प्रकार विचार करते करते कुवलयचन्द्रकुमार थोड़ा और आगे बढ़ा और पास ही उसे एक बड़ का झाड़ दिखाई दिया। वह वृक्ष नीले और घने किसलयों (कोंपलों) से शोभित था। उस पर रहे हुए बहुत से पक्षी कोलाहल कर रहे थे और उसमें अनगिनती डालियाँ थीं। उस वृक्ष को देखकर राजकुमार उसी ओर चला और उसके पास जा पहुँचा। कुमार ने वहाँ पहुँचकर इधरउधर देखा तो एक मुनि उसको नजर आये। उनका शरीर तपस्या और नियमों के कारण सूख गया था, लेकिन शरीर की कान्ति से वे अग्नि के समान लगते थे। मानों वे साक्षात् धर्म थे, उपशम रस की राजधानी थे, चारित्र रूपी लक्ष्मी के निवासस्थान थे, सौम्य गुण की खिलवाड़ के लिए वन थे। वे इसी प्रकार प्रथम प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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