SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [16] कुवलयमाला-कथा विद्या के द्वारा साधकर या इन्द्र की भी आराधना करके अवश्य ही पुत्र की याचना करूँगा।" राजा के ये प्रतिज्ञा वाक्य सुन कर मारे हर्ष के रानी के अङ्ग में रोमाञ्च हो आया और मुखकमल खिल उठा। राजा वहाँ से उठे और स्नान भोजन आदि करके सभा में आये। सभा में आकर सर्व विधियों को जानने वाले मन्त्रियों से बोले- "सुरगुरु वगैरह मन्त्रियों! आज यह वृत्तान्त हुआ है", ऐसा कह कर रानी के कोप का कारण तथा अपनी की हुई प्रतिज्ञा का हाल कहा। मन्त्री बोले- 'देव! अङ्गणवेदी वसुधा, कुल्या जलधिः स्थली च पातालम्। वल्मीकश्च सुमेरुः, कृतप्रतिज्ञस्य धीरस्य। भावार्थ- जिस धीर पुरुष ने प्रतिज्ञा कर ली हो उसके लिए सारा भूमण्डल आँगन के समान है, समुद्र कुलिया के समान है पाताल स्थल के समान है और सुमेरु पर्वत बाँबी (भिटा) के समान है। औरपराक्रमवतां नृणां, पर्वतोऽपि तृणायते। ओजोविवर्जितानां तु, तृणमप्यचलायते।। भावार्थ- पराक्रमी पुरुषों के लिए पर्वत तिनके के समान है और पराक्रमरहित पुरुषों के लिए तिनका भी पर्वत के बराबर मालूम होता है। अतएव महाराज आपने जो विचार किया है, वह योग्य है सुन्दर है, क्योंकि लौकिक शास्त्रों में प्राचीन मुनियों ने कहा है-"अपुत्रस्य गति स्ति" पुत्ररहित की अच्छी गति नहीं होती। महाराज पिण्ड, तिलाञ्जलि आदि कार्य पुत्र के बिना नहीं हो सकते। कहा भी है विद्यावतोऽपि नो यस्य, सूनुरन्यूनविक्रमः। वृथा तजन्म शाखीव, पुष्पराढ्योऽपि निष्फलः।। __ अर्थात् विद्यावान् होते हुए भी जिसे पराक्रमी पुत्र न हो उसका जन्म उस वृक्ष की भाँति वृथा है जो फूलों से तो लदा हुआ हो किन्तु फल रहित हो। __ अतः आपकी प्रतिज्ञा प्रशंसनीय है। लेकिन महाराज! महादेव आदि की आराधना महामांस की विक्रय वाली और जान को जोखिम में डालने वाली प्रथम प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy