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________________ [220] कुवलयमाला-कथा तरह अस्थिर है, इसे छोड़ना ही है। धीर भी, कातर भी देहधारी मृत्यु प्राप्त करते हैं। हम उस प्रकार मरेंगे जिससे फिर हमको मृत्यु की पीड़ा नहीं हो। अब अर्हन्त, सिद्ध साधु और केवलि-भाषित धर्म ही हमारा शरण है। जिनद्वारा उपदिष्ट कृपामय धर्म माता है, धर्माचार्य पिता है और यह साधर्मिक बन्धु सहोदर है। अन्य सब तो इन्द्रजाल के सदृश है। भरत ऐरावत महाविदेहों में श्रीवृषभनाथादि जिनों को, सिद्धों को, आचार्यों को, उपाध्यायों को, साधुओं को नमन करते हैं। सावद्ययोग उपधि को तथा बाह्य तथा आभ्यन्तर त्रिविध जीव को त्रिविध उपाय से त्यागते हैं। जीवन पर्यन्त चतुर्विध आहार को और अन्तिमश्वास में देह को भी त्यागते हैं। दुष्कर्मनिन्दा, प्राणिमात्र को क्षमा, भावना, चतुःशरण, नमस्कार तथा अनशन इस प्रकार आराधना षड्विध कही गयी है। तब ध्यानरूपी अग्नि से समस्त कर्मरूपी इन्धन समूह को क्षणात् दग्ध करके उत्पन्न कैवल्यज्ञान से त्रिलोकीतल को ज्ञात किये हुए वे पाँचों ही मुनीश्वर त्यक्तदेह वाले और श्रीयुत मुक्तिरूपी नितम्बधारिणी के स्तनों को अलङ्कृत करने वाले हार की सी शोभा वाले बन गये। ___ इस प्रकार श्रीपरमानन्दसूरि के शिष्य श्रीरत्नप्रभसूरि द्वारा विरचित श्रीकुवलयमाला कथा संक्षेप में श्रीप्रद्युम्नसूरिशोधित कुवलयचन्द्र-पितृसंगमराज्यनिवेश-पृथ्वीसारकुमार-समुत्पत्ति-ग्रहणप्रभृतिक चतुर्थ प्रस्ताव पूर्ण हुआ।।4।। ॥ यह कुवलयमाला कथा समाप्त हुई। ++++ चतुर्थ प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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