SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [176] कुवलयमाला-कथा ने लाकर निवेदन किया-“हे देव! इन भूपति के जयन्ती- पुरी के पति जयन्तनामक ज्येष्ठ भ्राता हैं। उन्होंने आपके लिये देवता से अधिष्ठित यह छत्ररत्न प्रेषित किया है।" कुमार ने विचार किया-'अहो! प्रवचनदेवी का प्रभाव, जिससे प्रथम ही यह प्रधान शकुन हुआ है।' यह ध्यान कर और उसे स्वीकार कर राजा और पुरीजनों से अनुगत हुआ और एक बड़ी सेना से घिरा हुआ कुछ भूमि पर आगे गया कुमार बोला-"महाराज! आप लौटकर धवलगृह को अलंकृत कीजिये। हे पौरजनों! आप भी लौट जाओ, कारण कि विजयापुरी दूर हो रही है।" तब उन सभी के लौट जाने पर परिवार सहित जाता हुआ कुमार कुछ ही प्रयाणकों से सह्य शैल के पास पहुँच गया। इस बीच में यहाँ आकर किसी ने निवेदन किया-“हे नाथ! यहाँ सरोवर के तीर पर स्थित देवालय में एक महामुनि हैं।" यह सुनकर कुवलयमाला के साथ वहाँ जाकर और मुनि को नमन कर कुमार ने सविनय कहा-"हे भगवन्! आप नव व्रत को स्वीकार किये हुए से हो यह मैं समझता हूँ, इसमें क्या कारण है?" तब मुनिश्रेष्ठ ने बताना आरम्भ किया "लाटदेश में पारापुरी में प्राज्यतपस्थामा सिंह नामक एक नरेश्वर हैं। उनका पुत्र भानु नामक है। चित्रकर्म का प्रेमी वह क्रीड़न कौतुकी मैं एक दिन उस पुरी से बाहर उद्यान भूमि में आया और वहाँ विचरण करते हुए मैंने एक कलाचार्य को देखा। उन्होंने कहा-"कुमार! मेरे लिखे हुए इस चित्रपट को देखकर बताओ कि यह रमणीय है या नहीं?" तब उसके अवलोकन से मैंने चिन्तन किया 'पृथ्वी पर वह कुछ भी नहीं है जो इसमें नहीं लिखा हुआ है, इस प्रकार विस्मितमना मुझको देखकर उन्होंने कहा"इसमें मैंने सम्पूर्ण संसार के विस्मृत स्वरूप को चित्रित किया है, मनुष्यजन्म में, तिर्यग् जन्म, में नरक, में स्वर्ग में जिस-जिस विविध दुःख-सुख का अनुभव किया- वह सब इसमें है, इसमें मोक्ष भी है जिसमें न जरा होती है. न मृत्यु होती है, न व्याधि होती है और न आधि।" इस प्रकार हे कुमार! उनके द्वारा बताये जाने पर और उस प्रकार के संसार-चक्र के चित्रपट के प्रत्यक्ष कर लेने पर मैंने चिन्तन किया- अहो! संसार में निवास कष्टकारक है। मोक्षमार्ग दुर्गम है। प्राणी अत्यन्त दु:खी हैं। कर्मगति विषम है। मूढ व्यक्ति स्नेह की शृङ्खला से जोर से जकड़ा हुआ है। काया अपवित्रतामय है। विषयों का सुख विष है। साक्षात् ही यह जीव महासागर में निमग्न है।' ऐसा चिन्तन चतुर्थ प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy