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________________ कुवलयमाला-कथा [159] कुमार- बहुतों के साथ तुम्हारा वैर बँधा है, तुम्हारी सेना थोड़ी है, अतः मेरे साथ आपको चलना उचित नहीं है। पल्लीपति 'अच्छा तुम्हारा कल्याण हो' कहकर दक्षिण की ओर रवाना हुए कुमार के पीछे चला। थोड़ी दूर जाकर फूले हुए वृक्षों के वन में लतामण्डपों में उसे अदृश्य हुआ देख पल्लीपति लौटकर अपनी जगह आ गया। इसके पश्चात पल्लीपति मानवीय जनों का मान-सन्मान कर प्रधान मण्डल की आज्ञा ले, राज्य की व्यवस्था कर और दीनों को दान देकर कर दीक्षा लेने को तैयार हुआ। उस विरह रूपी अग्नि से अन्त:पुर की स्त्रियों का शरीर जलने लगा। वे दीन मुँख से उसकी ओर देखने लगीं। वह व्रत लेने के लिए बाहर निकला। इधर कुवलयचन्द्रकुमार भी अनुक्रम से अनेक पर्वत, नदी और बड़ेबड़े पहाड़ों का उल्लङ्घन करके रास्ते में आये हुए अनेक ग्रामाकर, और नगरों में तरह-तरह के कौतुक देखता-देखता, समुद्र के किनारे पर बसी हुई विजयापुरी में आ पहुँचा। उस नगरी में उच्च जाति की, कुलीन तथा स्नेह वाली और मुग्ध सखियों से सेवित स्त्रियाँ विराजमान थीं। उसके बाहर धरती तक झुके ऊँचे-ऊँचे चमेली के वृक्षों वाले तथा स्नेही और मोही भौंरों से सेवित अनेक आराम (बगीचे) सुशोभित थे। वहाँ कर-पीडन सिर्फ स्त्रियों के स्तनों में था, प्रजा को कर (टैक्स) की किसी प्रकार की पीड़ा न थी। खण्डन भी स्त्रियों के अधरों में था, प्रजा में किसी प्रकार का खण्डन न था, स्नेह (तैल) की हानि सिर्फ दीपकों में होती थी, प्रजा में स्नेह (प्रेम) की हानि नहीं होती थी। उस नगरी में भद्र जाति से स्फुरायमाण ऊँचे हाथी, तथा भद्र जाति से मनोहर (भद्र) मनुष्य निवास करते थे। उस नगरी के निवासी पुरुष दो प्रकार के पराक्रम (गति और पुरुषार्थ) से शोभित थे, दो प्रकार से सुवर्ण (शरीर का रंग और जाति) वाले थे, दो प्रकार से सश्रीक (शोभा वाले तथा लक्ष्मीमान्)थे और दो प्रकार से कला केलिप्रिय (कला और क्रीडा जिन्हें प्रिय थी, तथा कलावान् मनुष्य जिन्हें प्यारे) थे। वहाँ के लोगों को न कभी जन्य (युद्ध) का सामना करना पड़ता था न अजन्य (उपद्रव) का। इस कारण वध करने में अथवा मन्दिरों में कोई भी मार्गण (बाण का उपयोग और भिखारी)न तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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