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________________ कुवलयमाला-कथा [5] जिनेन्द्र भगवान् का कहा हुआ धर्म चार प्रकार का है-दान, शील, तप और भावना। संसार भर में जिनकी कीर्ति फैली हुई है उन आदिनाथ ने धन सार्थवाह के भव में मुनियों को घी का दान करके दान धर्म की स्थापना की थी। उसके बाद सिद्ध और गन्धर्व आदि के सामने भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की कि - "मैं किसी प्रकार का पाप कार्य नहीं करूँगा।" अर्थात् चारित्रधर्म को स्वीकार करके शीलधर्म को स्थापित किया। इसके पश्चात् एक वर्ष का उपवास करके तप धर्म का प्रकाश किया। फिर एकत्वभावना अशरणभावना, तथा कर्मवर्गणा, कर्मबन्ध और मोक्ष, नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति में आने जाने से होने वाले सुख-दुःख तथा धर्मध्यान शुक्ल ध्यान इत्यादि की भावनाओं को विचार करके भगवान् ने भावनाधर्म को प्रगट किया। आजकल के मनुष्य में न तो वैसी शक्ति है न वैसा संहनन ही। इसलिए हम लोगों ने उस ऊँचे दर्जे के दान, शील और तप को प्रायः छोड़ दिया। अब हम लोगों को संवेग उत्पन्न करने के लिए भाव धर्म ही उपयोगी है, क्योंकि सज्जनों के झूठे को दिखाने के लिए हम लोग तैयार रहते हैं, चित्त सदा प्रमादी रहता है, दुष्टों की संगति में रहना पड़ता है और दूसरे के अवगुणों की देखादेखी करते हैं। अत: जिनेन्द्र भगवान् के, मुनिवरों के तथा अन्य सत्पुरुषों के अच्छे गुणों का कीर्तन करके अपना-अपना जन्म सफल करना चाहिए। पहले पादलिप्त, शातवाहन, षट्कर्ण, कवि मालाक, देवगुप्त, बन्दिक, प्रभञ्जन और श्रीहरिभद्र सूरि वगैरह जो महाकवि हो चुके हैं, जिनका एक एक काव्य आज भी सज्जनों का मन लुभा लेता है, उनकी कवित्व की शक्ति का हम किस प्रकार अनुभव कर सकते हैं? यदि मकड़ी के जाल के तन्तुओं से मदोन्मत्त हाथी बाँधे जा सकें, तुच्छ गुञ्जा फलों (घुङ्गचियों) से विद्रुम मणि शोभा पा सके, काच के टुकड़ों से वैडूर्य मणि जैसी कान्ति प्रकाशित होने लगे, भुजाओं से समुद्र पार किया जा सके, या तराजू से मेरु पर्वत तोला जा सके तो बुद्धिमानों के चित्त को प्रसन्न करने वाली कथा मुझ जैसे व्यक्ति से रची जा सकती है। यह कथा मैंने अपने कविपने के घमण्ड में आकर, व्याकरणशास्त्र की पण्डिताई बताने के लिए या ऊँचे तर्कशास्त्र की विद्वत्ता जताने के लिए या साहित्यशास्त्र में मैं पूरा हूँ-पूर्ण विद्वान् हूँ-यह प्रगट करने के लिए नहीं रची है, परन्तु अपने विनोद के लिए ही लिखी है। प्रथम प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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