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________________ - कुवलयमाला-कथा [129] अभी तुम्हारा चारित्रावरणीय कर्म बाकी है, इसलिए सांसारिक भोग विलास भोगकर फिर सत्तरह प्रकार का संयम ग्रहण करना । इतना कहकर देव ने सागरदत्त को विमान में बिठला लिया। सागरदत्त ने उस स्त्री को भी साथ ले लिया। वह विमान क्षण-भर में जयश्री नगरी में पहुँच गया। वहाँ उसी बूढे सेठ के यहाँ सागरदत्त उतरा और उस साथ लाय हुई स्त्री के साथ तथा सेठ की पुत्री के साथ विवाह किया । इसके पश्चात् विमान में बैठकर वह अपनी चम्पापुरी में आया । वहाँ उसने अपने माता-पिता आदि गुरुजनों को बड़ी भक्ति के साथ प्रणाम किया। फिर देव ने कहा- " भद्र! तुम्हारी उम्र दस हजार वर्ष की है। इनमें से तीन हजार वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। अब पाँच हजार वर्ष तक सांसारिक भोग भोगो, फिर दो हजार वर्षतक चारित्र का पालन करना।' इतना कहकर उसके घर में इक्कीस करोड़ द्रव्य की वर्षा करके देव स्वर्ग चला गया। इसके पश्चात् सागरदत्त चिरकाल की वियोगिनी पहली पत्नी की संभावना करके उन तीनों के साथ, जिनके नेत्र कमल सरीखे थे, क्रीड़ा करने लगा। धीरे-धीरे कामभोग से विरक्त होकर, परमार्थ का ज्ञाता होकर जिसे पूर्वभव और देव के वाक्य स्मरण थे, ऐसा वह सागरदत्त भोग-फल वाले कर्मों का क्षय हो जाने से वैराग्य - मार्ग में प्राप्त हुआ । फिर जिनेन्द्र के चैत्यों में अट्ठाईस महोत्सव करके तथा सब कार्य समाप्त करके सागरदत्त पवित्र स्थविर मुनि के पास दीक्षा लेकर उनका शिष्य हो गया । हे कुवलयचन्द्र कुमार ! वह सागरदत्त मैं ही हूँ। सब शास्त्रों का अभ्यास करके, दो प्रकार की शिक्षा को अङ्गीकार करके एकाकी (अकेले ) विहार करने रूप प्रतिमा को धारण करने वाला हूँ । मुझे अवधिज्ञान प्राप्त हो चुका है। उसमें मैं नीचे की ओर रत्नप्रभा पृथ्वी के समस्त प्रतरों (पाथड़ों) तक ऊपर की ओर सौधर्म विमान की चूलिका तक तथा तिर्यक् लोक में मानुषोत्तर पर्वत के शिखर तक सब पदार्थों को देख सकता हूँ । इस प्रकार देखते हुए मैं ने अपने लोभ देव और पद्मप्रभ ये दो भव देखे । ये भव देखकर मुझे विचार हुआ कि मेरे दूसरे चार मित्र देव थे, वे अब कहाँ उत्पन्न हुए हैं? ऐसा विचार कर मैंने उपयोग लगाया तो मालूम हुआ कि जो चण्डसोम स्वर्ग में पद्मचन्द्र देव हुआ था, वह वहाँ से चयकर अयोध्या नग में दृढवर्मा राजा का पुत्र कुवलयचन्द्र हुआ है । जो मायादित्य मर कर स्वर्ग तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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