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________________ [106] कुवलयमाला-कथा करना चाहिए। ऐसा विचार करके पाँचों साधुओं ने परस्पर में कुछ संकेत (इशारा) कर लिया कि जिससे पर भव में प्रतिबोध दिया जा सके। इसी प्रकार सिद्धान्त के अभ्यास की इच्छा रखने वाले वे मुनि अपना समय व्यतीत करते थे। परन्तु चण्डसोम कुछ क्रोधी था और मायादित्य कुछ मायावी। दूसरे मुनिराज कठिनता से जीती जा सकने वाली कषायों को जीतते हुए शुद्ध रीति से दीक्षा का पालन करते थे। धीरे-धीरे, कुछ समय बाद पहले लोभदेव का आयुष्य समाप्त हुआ। उसने अन्त समय में सल्लेखना की विधि से ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना करके देव आयु बाँध कर काल (मरण) किया। एक ही समय में, वह फौरन ही सौधर्म स्वर्ग में पद्म नाम के विमान में पद्मप्रभ नाम का निर्मल शोभा वाला देव हुआ। वह पद्मप्रभ देव वहाँ इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगा। इसी प्रकार मानभट का भी आयुष्य समाप्त हुआ। वह संसार रूपी बेल को काटने के लिए दाँता के समान और सुख-सम्पत्ति के स्थान रूप पञ्चपरमेष्ठी नमस्कार का स्मरण करता हुआ, उसी क्रम से अनेक योजन विस्तार वाले उसी पद्म विमान में पद्मसार नामक देव हुआ। इसी भाँति मायादित्य, चण्डसोम और मोहदत्त तीनों साधु आयु पूरी होने पर चार प्रकार के आहार का त्याग कर, णमोकार मन्त्र में लीन हो, आराधना करने में मन लगा, चार शरणों का आश्रय ले, चारित्र विधि के अनुसार क्रिया कर और अठारह पाप स्थानों का त्याग करके उसी विमान में क्रमशः पद्मवर, पद्मचन्द्र और केशर नाम के देव हुए। इस प्रकार पद्मविमान में उत्पन्न हुए, समान विभूति, परिवार, बल, प्रभाव, पुरुषार्थ और आयु वाले, परस्पर प्रीति युक्त मन वाले तथा जिन्होंने आपस में संकेत कर लिया था ऐसे वे पाँचों देव समय व्यतीत करने लगे। एक बार इन्द्र के सेनापति ने घण्टा बजाया। घण्टे का शब्द सुनकर पाँचों ने तत्काल ही अपने सेवकों से पूछा-"यह घण्टा किस लिए बजाया गया है?" उन्होंने उत्तर दिया- "देव! जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मध्य खण्ड में श्रीमान् धर्मनाथ तीर्थंकर को निर्मल केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। उनके समवसरण में सब देवों के साथ इन्द्र पधारने वाले हैं।" यह उत्तर सुनकर पाँचों देवों ने पहले वहीं बड़ी भक्ति से मस्तक नमाकर श्रीधर्मनाथ भगवान् को प्रणाम किया। फिर मन से शुद्ध वाले पद्मसार आदि पाँचों देव इन्द्र के साथ चम्पापुरी में, जहाँ तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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