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________________ जैन रामायण में गुरुभक्ति के महत्व को उच्च स्थान दिया गया है। गुरू के साथ-साथ माता-पिता की वन्दना भी जैन धर्म का प्रमुख गुण रहा हैं। जैन रामायण में अनेक स्थलों पर जैन मुनि-वंदना आई है। जैन साधुओं को उच्चासन पर विराजित कर उसकी सेवा सुश्रुषा करने का वर्णन त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में आता है। हेमचंद्राचार्य के अनुसार मानवजन्म दुर्लभ है। 38 इस जन्म में सुखदुःखादि फल पूर्वजन्म-कर्मानुसार मानव को भोगने पड़ते हैं। सुख एवं दुःख किसी अन्य की देन नहीं, यह तो मानव के पूर्व कर्मों का ही फल है। 39 हेमचंद्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित पर्व में अनेक पात्रों के पूर्वजन्मों की लम्बी कथाएँ देकर पूर्वजन्म की मान्यता को स्वीकार किया है। 40 आत्मा अनेक जन्मों में भटकती हुई मानवदेह को प्राप्त करती है। हेमचंद्र ने दशरथ 41 आदि अनेक राजाओं के पूर्व जन्म के वृत्तांत जैन रामायण में विस्तारपूर्वक दिए हैं। सीता, अंजना आदि स्त्री पात्रों पर आने वाले दुःखों का कारण उनके पूर्वजन्म में किए गए कर्म ही हैं जिनका फल वे इस मानव जन्म में भुगत चुकी हैं। 42 जैन धर्म में नमस्कार मंत्र की महिमा सर्वविदित है। 43 इस मंत्र में अरिहंतों को, सिद्धों को, आचार्यों को, उपाध्यायों को एवं सर्व मंगलों में मंगल रूप नमस्कार मंत्र को जैन रामायण में पूर्ण महत्व प्राप्त हुआ है। साधु लोग जिन शासित प्रजावर्ग को नमस्कार मंत्र देकर कृतार्थ करते हैं। हेमचंद्र ने जैन रामायण में नमस्कार मंत्र का प्रभाव प्रदर्शित किया है। इस महामंत्र के प्रभाव से जीवों की गति होती है। पक्षिराज जटायु को गोद में लिए हुए राम ने अंतिमसमय में उसे नमस्कार मंत्र दिया, जिसे पाकर जाटायु देवगति को प्राप्त हुआ। 44 आचार्य हेमचंद्र ने जैन रामायण में अनेक दार्शनिक मुद्दों पर दृष्टिपात किया है। संक्षेप में उनका दार्शनिक पक्ष इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है माया : माया को आचार्य ने मनुष्यमात्र के लिए बाधक तथा पतनोन्मुख कहा है । वे उसे ठगिनी मानते हैं । माया विश्वमानवों को ठगती है। सांसारिक लोग माया से आस्वादित होकर भले ही प्रसन्न होते हैं परंतु अंत में उन्हें पछताना पड़ता है। हेमचंद्राचार्य ने माया को इन्द्रजालिक नगरी की तरह बताया है सांसारिकसुखास्वादवञ्चितेयं मनोरमा। जीविष्यति कथं नाथ त्वया तृणव-दुज्झिता ॥ 45 स ददर्श पुरी तां व दध्यौ चैतसि विस्मयात् । मायेयमिन्द्रजालं वा गान्धर्वमथवा पुरम ॥ 46 जगत् : जैन दर्शन में जगत को मिथ्या माना गया है। हेमचंद्र के अनुसार जगत अशास्वत है। जिस तरह सूर्य के उदय होने की क्रिया में ही उसका अस्त होना छिपा हुआ, है ठीक उसी प्रकार जगत के प्रत्येक पदार्थ का नाश असंदिग्ध है। 59
SR No.022699
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnuprasad Vaishnav
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2001
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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