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________________ सारांश यह है कि जीव में राग, द्वेष, प्रमादादि जहां तक रहते हैं वहां तक बंध के कारणों का अस्तित्व होने से संसार की वृद्धि हुआ करती है। उस कारणों का विरोध किया जाए तो संसारभाव दूर होकर जीव सिद्धि अथवा निर्वाण अवस्था प्राप्त करता है। निरोध की प्रक्रिया को संबर करते हैं, और केवल विरति आदि से सन्तुष्ट न होकर जीव कर्म से छूटने के लिए तपश्चर्यादि कठोर अनुष्ठान आदि भी करता है, उससे निर्जरा-आदि का छुटकारा होता है और अंत में वह मोक्ष प्राप्त करता है। 18 सम्यग्ज्ञान : येनयेन प्रकारेण जीवादयः पदाथा व्यवस्थितास्तेन तेनावगमः सम्यग्ज्ञानम्। यह पांच प्रकार का है-मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्याय एवं केवल। 19 डॉ. राधाकृष्णन् ने कहा है:-वर्धमान का ज्ञानसंबंधी सिद्धांत उनका अपना है और दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए अपना एक विशेषत्व रखता है P० __ मतिज्ञान : यह साधारण ज्ञान है जो इन्द्रियों के प्रत्यक्ष संबंध द्वारा प्राप्त है। स्मृति, संज्ञा, पहचान, तर्क, आगमन, अनुमान, अभिनिबोध, निगमन, विधि का अनुमान आदि इसी के अंतर्गत आते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान, स्मृति एवं अर्थग्रहण ये मति ज्ञान के तीन भेद हैं। मतिज्ञान इन्द्रियों एवं मन के सहयोग से प्राप्त होता है। श्रुतिज्ञान : यह लक्षणों, प्रतीकों एवं शब्दों द्वारा प्राप्त होता है। इसके चार प्रकार हैं- संसर्ग, भावना, उपयोग और नय ।24 अवधिज्ञान : देश-काल की दूरी के उपरांत भी वस्तुओं का जो प्रत्यक्ष ज्ञान है वह अवधिज्ञान है। यह इन्द्रियों से परे का ज्ञान है। मनः पर्यय ज्ञान : मनः पर्यय, अन्य व्यक्तियों के वर्तमान एवं भूत विचारों का साक्षात् ज्ञान, जैसे टेलीपैथी द्वारा दूसरों के मन में प्रवेश किया जाता है। केवत्वज्ञान : सभी पदार्थों एवं उनमें होने वाले परिवर्तनों के संबंध में पूर्ण प्राप्त ज्ञान केवल ज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान अनुभवजन्य है, इन्द्रियों से परे है, अवर्णनीय है, यह केवल बंधनमुक्त आत्माओं के लिए ही है। पुनःज्ञान के दो प्रकार-प्रमाण एवं नय। नय के विभिन्न प्रकारनेगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, श्रजुसूत्रनय, शब्दनय समभिरूढनय और सर्वभूतनय। 26 नय के दो भेद - द्राव्यार्थक एवं पर्यायार्थक। नय का उपयोग स्याद्ववाद परे "सप्तभंगी" में होता है। सप्तभंगी जैन तर्कशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है- '. स्याद् अस्ति 2. स्याद् नास्ति . स्याद् अस्ति नास्ति :. स्याद् अवक्तव्यम् इ. स्याद् अस्ति च अवक्तव्यम् . स्याद् नास्ति अवक्तव्यम्'. स्याद् अस्ति च नास्ति व अवक्तव्यम्। 57
SR No.022699
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnuprasad Vaishnav
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2001
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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