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________________ सत्य-असत्य एवं अर्द्धसत्य तर्को का समावेश भी दर्शन के अर्थ में हो गया। यदि किसी आधार में चित्रगत या देहगत मलिनता न रहे तो इस शब्द के श्रवणमात्र के साक्षात् रूप में या परंपरा क्रम से अप्रत्यक्ष ज्ञान का उदय होता है। इसे ही दर्शन कहते हैं। चित्त के कर्तव्य- अकर्तव्यवृत्ति या असंभावना दोष के निवारणार्थ आश्यकता है मनन की। परंतु भारतीय दार्शनिकों का मत है कि मनन के द्वारा आप्तजन से, प्राप्त तत्व का अपरोक्ष ज्ञान पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं किया जा सकता। ऐसे प्रकरणों में योगाभ्यास की आवश्यकता पर बल दिया जाता है। श्रेतव्य श्रुतिवाक्येभ्यो मन्त्रध्य ओपत्तिभिः मत्वं व सततं ध्येयः एवं दर्शनहेतव : ॥ अर्थात् श्रवण, मनन, निदिध्यासन-ये तीनों ही दर्शन के हेतु कहे जाते हैं। इसी प्रकार-'न्यायकुसुमांजलि' में उदयनाचार्य कहते हैं"न्यायचर्चेयम ईशस्थ मनन-वय्पदेशभाक श्रवणानस्तरगत" अर्थात् श्रवण के बाद जो न्यायचर्चा होती है वह मनन का ही अंश है। यह उपासना का ही एक भेद है। दर्शन सोचना, समझना एवं विचारना सिखाता है। दर्शन जीवन धारणाओं का निश्चय करता है। विचारवेत्ता दर्शन को महज बाह्य जगत का व्याख्याकार नहीं मानते, उनके अनुसार दर्शन को यह भी बताना होगा कि बाह्य जगत पर मानव का नियंत्रण कैसे हो। पुनर्निर्माण कैसे संभव हो। लक्ष्य क्या हो,' आदि। दर्शन का कार्य गुणनिर्माण है। जिस व्यक्ति का दृष्टिकोण जीवन के प्रति स्वस्थ है वह दार्शनिक है। स्वस्थ दृष्टकोण स्वस्थ क्रिया प्रतिक्रिया को पैदा करता है। स्वस्थ क्रियाएं एवं प्रतिक्रियाएं अनेक स्वस्थ व्यक्तित्वों का विकास-निर्माण करती हैं। प्रकृति ने हमें जीवन दिया है, परंतु जीवन को सुखी, समृद्ध, उन्नत एवं सफल बनाने का मार्ग निर्देशित करने वाला है- दर्शन । बाल्टेयर ने कहा है- "न केवल सत्य" बल्कि "शिव" (कल्याण) भी दर्शन की परिधि में सम्मिलित है। दर्शन और जीवन : दर्शन एवं जीवन का आपस में घनिष्ट संबंध है।" जीवनधारा ही दर्शन है। जीवन ही दर्शन का प्रथम एवं मुख्य वर्ण्य विषय है। दोनों एक दूसरे के अनुपूरक हैं। चाहे शिक्षा हो या व्यवहार हो, चाहे धर्म हो या विज्ञान हो, दर्शन के प्रभाव से कोई मुक्त नहीं हो सकता, जीवन का हर क्षेत्र दर्शन के लिए सामग्री जुटाता है। दर्शन-सत्य से जीवन व्यावहारिक बनता है। इस व्यवहार में समस्यात्मक तथ्य पुनः दर्शन के विचारार्थ प्रस्तुत हो जाते हैं। बस यही प्रक्रिया अनवरत रूप से दोहरायी जाती रहती है। दर्शन की क्रिया मानव शरीर की तरह क्रियाशील है। शरीर का क्रम रक्तसंचार से शाश्वत है। रक्त के स्थिर होते ही देह की सत्ता अस्तित्व एवं उपयोगिता शून्य हो जाते है। ठीक उसी प्रकार जीवन को भी दर्शन से शुद्ध विचार. शाश्वत 54
SR No.022699
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnuprasad Vaishnav
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2001
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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