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________________ से उन्होंने राम से दुःख आने की आशंका प्रकट की। राम बोले- हे देवी! खेद न करो! सुख व दुःख कर्म के आधीन हैं। तुम मंदिर में जाकर पूजा करो व दान दो, क्योंकि आपत्ति में धर्म ही शरण है। सीता ने अरिहत की सजा की एवं दान दिए। 467 एक दिन नागरिक अधिकारियों ने कहने से पूर्व ही क्षमा माँगकर डरते हुए राम से कहा कि 468 हे देव, सीता के विषय में यह अपवाद फैल रहा है कि व्याभिचारी रावण ने अवश्य सीता को बलात्कार से भोगा होगा : देव देव्यां प्रवादोडस्ति घटते दुर्घटो डपिहि । युकत्या हि यद्घटामेति श्रद्धेयं तन्मनीपिणां ॥ तथाहि जानकी हृत्वा रावणेन् रिम्सुना। एकैव निन्ये तद्वेश्मन्यवात्सी कीच्च चिरं प्रभो॥ सीता रक्ता विरक्ता वा संविच्चा वा प्रसावा वा। स्त्रीलोलेन दशास्येन नूनं सयाद्भोगदूषिता ॥ 469 नगर अधिकारियों की ऐसी सूचना पर राम स्वयं गुप्त रीति से नगर में घूमे एवं लोकापवाद को सुना। पुनः राम ने लक्ष्मण, सुग्रीव, विभीषण आदि जासूसों को भेजकर भी स्पष्टीकरण कर लिया कि समस्त नगरजन सीता को कलंकित कर रहे हैं। यह सुन लक्ष्मण अति क्रोधित हुए कि इन सभी निंदकों को क्षण मात्र में यमलोक पहुँचा दूं। राम ने उन्हें समझाया कि लोक अपवाद के नाश के निमित्त सीता को त्यागना अब आवश्यक है। अव राम ने कृतांतवदन सेनापति को आदेश दिया कि गर्भवती होने के वावजूद भी सीता को जंगल में छोड आओ। लक्ष्मण जब राम को समझाने लगे तो राम बोलेनातः परं त्वया वाच्यम्" यह सुनकर लक्ष्मण मुँह ढक कर घर में चले गए। 470 एक दिन राम की आज्ञा से कृतांतवदन समेत शिखर की यात्रा के बहाने सीता को रथ में बिठाकर गंगा को पार करता हुआ सिंहनिनादक वन में पहुँचा। वन में पहुंचने पर कृतांतवदन के गिरते आँसुओं को देखकर सीता ने इसका कारण पूछा तो कृतांतवदन बोला- हे देवी। आप निरपराध हैं परंतु लोकापवाद से राम ने आपका त्याग किया है। हे देवी, आपको यहाँ लाने का पापकर्म मैंने किया है। मैं पापी हूँ। ऐसे शब्द सुनते ही सीता रथ से गिर पड़ी एवं मूर्छित हो गईं। सीता को मरी हुई समझ कृतांतवदन रोने लगा। धीरे-धीरे सीता को चेतना प्राप्त हुई एवं वे बोली राम कहाँ है ? अयोध्या कितनी दूर है ? इस प्रकार वह विलाप करने लगी। 471 अब कृतांतवदन जब अयोध्या के लिए रवाना होने लगा तब सोता ने उससे कहा - "मेरा यह संदेश राम को सुना देना कि," अभागिन में अपने कर्मफल को जंगल में भोगूंगी पर आपका यह कार्य विवेकपूर्ण एवं कुलानुरूप नहीं है। हे स्वामी, आप मेरी तरह जैन धर्म को मत छोड़ना। 472 यह कहती 105
SR No.022699
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnuprasad Vaishnav
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2001
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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