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________________ (९) भगवान् श्री सुविधिनाथ तीर्थंकर गोत्र का बंध ___ अर्ध पुष्कर द्वीप के पूर्व विदेह की पुष्कलावती विजय में पुंडरीकिनी के सम्राट महापद्म राजा होते हुए भी सात्विक प्रकृति वाले थे। सत्ता पाकर भी वे अहंकार से अछूते रहे। राजकीय वैभव और रानियों के संयोग में रहकर भी वे वासनासिक्त नहीं थे। अवसर पाकर राजा ने पुत्र को राज्य दिया और स्वयं जगन्नंद मुनि के पास षट्कायिक जीवों के रक्षक बन गये। विविध आसनों में, ध्यान और स्वाध्याय में संलग्न हो गये । मैत्री, करुणा, प्रमोद आदि भावनाओं से उन्होंने स्वयं को भावित किया । इन सब उपासनाओं से महान् कर्म-निर्जरा कर तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। ___अंत में अनशन करके उन्होंने आराधक पद पाकर वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। जन्म ३३ सागरोपम देवत्व को भोग कर भगवान् का जीव काकंदी.नरेश सुग्रीव की महारानी रामादेवी की कुक्षि में अवतरित हुआ। महारानी रामादेवी ने चौदह स्वप्न देखे । स्वप्न पाठकों ने 'तीर्थंकर पैदा होंगे', ऐसी घोषणा की। सारे राज्य में उत्साह का वातावरण छा गया। कब तीर्थंकर देव का जन्म हो, यह जानने के लिए सभी उत्सुक थे। गर्भकाल पूरा होने पर मिगसर कृष्णा पंचमी की रात्रि में पीड़ा रहित प्रसव हुआ। भगवान् के जन्मकाल से सारा विश्व आनन्दमय हो उठा। राजा सुग्रीव पुत्र प्राप्ति से अत्यधिक हर्ष विभोर थे। आज वे स्वयं को सबसे अधिक सुखी, सबसे अधिक समृद्ध, सबसे अधिक भाग्यशाली मान रहे थे। पूरे राज्य में उत्साह था। राज्य के हर घर में राजकीय उत्सव मनाया गया। घरों की लिपाई-पुताई से सारा नगर अलौकिक आभा. से चमक उठा। नामकरण के दिन राजा ने विराट् आयोजन किया। सबको प्रीतिभोज दिया। परिवार के वृद्ध पुरुषों ने गर्भकाल में घटित विशेष घटनाओं को पूछा, ताकि नाम देने में सुविधा रहे । राजा ने कहा- 'गर्भकाल में इनकी माता हर विधि की जानकार
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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