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________________ (७) भगवान् श्री सुपार्श्वनाथ तीर्थंकर गोत्र का बन्ध धातकी खंड द्वीप के पूर्व महाविदेह की क्षेमपुरी नगरी के राजा नन्दीसेन पूर्व जन्मों की साधना से बहुत ही अल्पकर्मी थे। विपुल भोग सामग्री पाकर भी वे अन्तर् में अनासक्त थे । सत्ता के उपयोग में उनका मन कभी लगा नहीं । वे सत्ता से 1 विलग होने के लिए छटपटा रहे थे। अपने उत्तराधिकारी के योग्य होने पर उसे राज्य सौंपकर उन्होंने आचार्य अरिदमन के पास श्रमणत्व स्वीकार कर लिया। घोर तप तथा साधना के विशिष्ट बीस स्थानों की विशेष साधना की । अपूर्व कर्म- निर्जरा करके तीर्थंकर गोत्र का बन्ध किया। वहां आराधक पद प्राप्त कर छठे ग्रैवेयक में देव बने । जन्म देवत्व का पूर्ण आयुष्य भोगकर भरतक्षेत्र की वाराणसी नगरी के राजा प्रतिष्ठसेन के घर महारानी पृथ्वीदेवी की कुक्षि में अवतरित हुए। माता को तीर्थंकरत्व के सूचक चौदह महास्वप्न आए । राजा प्रतिष्ठसेन का राजमहल हर्षोत्फुल्ल हो उठा । नगरी में सर्वत्र महारानी के गर्भ की चर्चा थी । गर्भकाल पूरा होने पर ज्येष्ठ शुक्ला बारस की मध्यरात्रि में बालक का प्रसव हुआ । भगवान् के जन्मकाल में केवल दिशाएं ही शांत नहीं थी, सारा विश्व शांत था । क्षण भर के लिए सभी आनंदित व पुलकित हो उठे थे। राजा प्रतिष्ठसेन ने पुत्र प्राप्ति के हर्ष में खूब धन बांटा, याचक- अयाचक सभी प्रसन्न थे । जन्मोत्सव की अनेक विधियां सम्पन्न करने के बाद नामकरण की विधि भी सम्पन्न की गई। विशाल समारोह में बालक के नाम की चर्चा चली । राजा प्रतिष्ठसेन ने कहा- 'यह जब गर्भ में था, तब इसकी माता के दोनों पार्श्व अतीव सुन्दर लगते थे । सामान्यतः गर्भवती औरतों का कटिप्रदेश अभद्र दीखने लग जाता है। इसके गर्भ में रहते हुए पहले से अधिक सुन्दर नजर आता था, अतः बालक का नाम सुपार्श्व रखा जाए।' सबने इसी नाम से पुत्र को पुकारा ।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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