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________________ भगवान् श्री पद्मप्रभ पूर्व भव - धातकी खंड द्वीप के पूर्व महाविदेह की वत्स विजय में सुसीमा नाम की नगरी थी। वहां अपराजित नामक राजा राज्य करते थे। अपराजित सम्राट् का पद पाकर भी संत- हृदय थे। वासना उन पर कभी हावी नहीं हुई वे ही सदा वासना पर हावी रहे । राज्य के बड़े-बूढ़े लोग प्रायः यही कहते थे कि हमारे सम्राट् में भोगों की दृष्टि से कभी तारुण्य नहीं आया, वे हमेशा एक लक्ष्यबद्ध मनस्वी की भांति रहे हैं। कभी उनमें यौवन का उन्माद नहीं देखा गया। सचमुच सम्राट् विरक्तहृदयी थे। उनके राज्य- संचालन की प्रक्रिया तो दायित्व का निर्वाह करना मात्र था। उन्हें राजमहल से मानो कोई लगाव ही नहीं था। सब कुछ पाकर भी वे उसे छोड़ने की ताक में थे। अवसर पाकर पिहिताश्रव इन्द्रियगुप्त अणगार के पास उन्होंने अनिकेत धर्म को ग्रहण किया तथा बाह्य जगत् से सर्वथा निवृत्त होकर आन्तरिक साधना में लीन बन गए। तीर्थंकर-गोत्र- बंध के बीस कारणों की उन्होंने विशेष उपासना की। कर्मों की महान् निर्जरा करके तीर्थंकर गोत्र का बन्ध किया। अंत में अनशनयुक्त समाधिपूर्वक प्राण छोड़कर वे ग्रैवेयक में देव- रूप में उत्पन्न हुए। जन्म इकतीस सागर की पूर्णायु भोगकर वे जंबू द्वीप के भरत- क्षेत्र में अवतरित हुए। कौशंबी नगरी के राजमहल में राजा धर की महारानी सुसीमा की पवित्र कुक्षि में आए । अर्धसुषुप्त- अवस्था में महारानी सुसीमा ने चौहद महास्वप्न देखे । स्वप्नफल जान लेने के बाद समूचे राज्य में प्रसव की उत्सुकता से प्रतीक्षा की जाने लगी। ____ कार्तिक कृष्णा बारस की मध्यरात्रि में गर्भकाल पूरा होने पर निर्विघ्नता से भगवान् का जन्म हुआ। उनका जन्म होने में माता को कोई पीड़ा नहीं हुई। देवों के बाद नागरिकों सहित राजा ने पुत्र- जन्म का उत्सव किया। ग्यारह दिनों तक
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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