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________________ N4 ___2064 | भगवान् श्री संभवनाथ महापुरुष कोई एक दिन में नहीं बन जाता। इसके लिए वर्षों नहीं, कई जन्मों तक साधना करनी पड़ती है। भगवान् श्री संभवनाथ के जीव ने भी अनेक भवों में साधना की थी, मानवीय गुणों का विकास किया था। उसी के परिणामस्वरूप वे तीर्थंकर बने। पूर्व भव एक बार वे धातकीखंड़ द्वीप के ऐरावत क्षेत्र में क्षेमपुरी नगरी के विपुलवाहन नामक राजा थे। राज्य में भयंकर दुष्काल पड़ा। राजा के मन में दायित्व-भाव उमड़ पड़े। उसने अपने भंडार के द्वार खोल दिए। अधिकारियों को निर्देश दिया कि भंडार में भले ही कुछ न बचे, किन्तु राज्य का एक भी व्यक्ति भूखा नहीं रहना चाहिए। राजा ने बाहर से अन्न मंगाया, ग्राम- ग्राम में अन्न क्षेत्र बनाये। स्वयं देहाती क्षेत्रों का दौरा किया और अन्न वितरण की व्यवस्था देखी। राज्य में चल रहे विकास कार्यों की गतिविधि को देखा। राजा के इस आत्मीय व्यवहार से प्रजा में अद्भुत एकात्मकता आ गई। दुष्काल के कारण अनेक साधु सुदूर जनपदों में चले गए, किन्तु कुछ शरीर से अस्वस्थ या अक्षम साधु और उनकी परिचर्या करने वाले मुनि अभी शहर में थे। उन्हें शुद्ध आहार कभी मिलता और कभी नहीं मिलता। जानकारी मिलते ही राजा तत्काल मुनियों के पास गया और भोजन के लिए निमंत्रण दिया। मुनि की चर्या से राजा अपरिचित था। मुनियों ने अपने कल्प- अकल्प की विधि बतलाई। राजा ने निवेदन किया- कोई बात नहीं, राजमहल में अनेक भोजनालयों में सात्विक भोजन बनता है। मेरे सहित सभी व्यक्ति कुछ न कुछ कम खाकर आपको देंगे, आप पधारिए। मुनि गए, राजमहल से यथोचित आहार ले आए। राजा ने शहर में अन्न संपन्न व्यक्तियों को भी समझाया, वे भी मुनियों को भक्ति से भिक्षा देने लगे। दुष्काल के दिनों में प्रतिदिन राजा संतों को आहार मिला या नहीं, इसकी जानकारी लेता और धर्म- दलाली करता। इस धर्म- दलाली और शुद्ध- दान से
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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