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________________ भगवान् श्री अजितनाथ /४५ एक बार राजा जितशत्रु के मन में विचार उठा- पुत्र राज्य करने लायक हो गये हैं, फिर भी मैं राज्य कर रहा हूं। यह मेरा प्रमाद है । मुझे अब शीघ्रातिशीघ्र राज्य छोड़कर साधना में लग जाना चाहिए। इसी निर्णय के साथ अपने छोटे भाई युवराज सुमित्र को बुलाकर राज्य का भार उन्हें देना चाहा, किन्तु सुमित्र इन्कार हो गए। तब उन्होंने अपने पुत्र अजितनाथ का राज्याभिषेक किया और स्वयं युवराज सुमित्र के साथ दीक्षित होकर उत्कृष्ट साधना में लग गए। अजितनाथ के राज्य संचालन से प्रजा बड़ी सुखी थी। राज्य में किसी भी वस्तु का अभाव नहीं था। जनता अत्यन्त चैन से जीवनयापन कर रही थी। सबके हृदय में अजितनाथ के प्रति गहरी एकात्मकता थी । दीक्षा-प्रतिबोध इकहत्तर लाख पूर्व वर्षों तक घर में रहने के बाद भोगावली कर्म शेष हुये और प्रभु का अन्तर्मन साधना के लिए उद्यत बना जानकर लोकांतिक देव आए, और रश्म के तौर पर अजितनाथ को प्रतिबोध दिया। प्रत्येक तीर्थंकर वैसे स्वयं बुद्ध होते है, किन्तु लोकान्तिक देव उन्हें दीक्षा से एक वर्ष पूर्व प्रतिबोध देने आते हैं। उनके आने के बाद ही तीर्थंकर अभिनिष्क्रमण की तैयारी करते हैं 1 राज्य त्याग और वर्षीदान अजितनाथ ने अपने चचेरे भाई 'सगर' को राज्य संचालन का भार सौंपा और वर्षीदान प्रारंभ किया । वर्षीदान की व्यवस्था सदैव देवता ही करते हैं। भरत क्षेत्र में कहीं पर भी गडा हुआ स्वामी - विहीन स्वर्ण निकालकर उसे जौ के आकार का बनाकर रात्रि में भंडार भर देते हैं। इन स्वर्णयवों को 'सोनईया' कहा जाता हैं । सोनईया के एक तरफ तीर्थंकर की माता का नाम तथा दूसरी तरफ पिता का नाम अंकित रहता हैं । भगवान् दीक्षा से पूर्व उन सोनईयों का दान वर्ष भर प्रतिदिन एक प्रहर तक देते हैं। इस एक प्रहर में वे एक करोड़ अस्सी लाख सोनईयों का दान करने लगे। इसका उद्देश्य जन साधारण में दीक्षा से पूर्व ही भगवान् का वैशिष्ट्य स्थापित करना होता है। इस बहाने अनेक परिचित - अपरिचित व्यक्तियों से साक्षात्कार हो जाता है। इस दान को अमीर- गरीब सभी ग्रहण करते हैं। इसकी सारी व्यवस्था देवों के हाथ में रहती है। तीर्थंकर तो सिर्फ परम्परा के निर्वाह के लिए नायक मात्र होते हैं। भगवान् अजितनाथ ने भी उस परम्परा का पालन किया और एक वर्ष तक वर्षीदान दिया। इस अवधि में कुल तीन अरब अठासी करोड़ अस्सी लाख सोनईयों का दान किया । दीक्षा वर्षीदान के बाद जब अजितनाथ दीक्षा के लिए तत्पर हुए तो राजा सगर ने भगवान् का दीक्षा महोत्सव किया। चौसठ इंद्र एकत्रित हुए। सुसज्जित
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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