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________________ भगवान् श्री ऋषभदेव / ३५ पाने की आशा से पीछे-पीछे फिर रहे हैं। 'इन्द्र ने समझाते हुए कहा- भाई! बाबा संयमी बन चुके हैं। अब कुछ नहीं देंगे।' इस पर दोनों गिड़गिड़ाए - 'हम तो बेघरबार ही रह गये।' इन्द्र ने कहा- लो, तुम्हें ऐसा राज्य देता हूं, जो बिना दिया हुआ है। वैतादयगिरि पर्वत पर जाओ। दोनों भाई वहां दक्षिण और उत्तर दोनों ओर नगर बसाओ। दोनों ने निवेदन किया- इतनी ऊंचाई पर चढ़ पाना असम्भव है । चढ़ भी जायेंगे तो नगर कैसे बसेगा? जनता क्यों आयेगी वहां ? इन्द्र ने कहा- चिन्ता क्यों करते हो? लो, मै तुम्हें अड़तालीस हजार विद्याएं देता हूं जिनसे तुम पक्षी की भांति आकाश में उड़ सकते हो। इसके अतिरिक्त दिन को रात और रात को दिन बना सकते हो । नागरिक जीवन की सारी भौतिक सुविधाएं इन विद्याओं से तुम प्राप्त कर सकते हो। दोनों भाई उन विद्याओं को सिद्ध कर वैताढ्य पर्वत पर गये । उन्होंने दक्षिण की ओर साठ नगर और उत्तर की ओर पचास नगर बसाये । विद्या बल और इन्द्र सहयोग से सामान्य जीवन की सभी सुविधाएं वहां उपलब्ध कर दी गई । अत्यधिक सुविधाएं देखकर अनेक लोग वहां बसने को आतुर हो उठे। कुछ ही समय में काफी लोग वहां आ बसे । उनकी संतान ही आगे चलकर विद्याधर कहलाई । सर्वज्ञता प्राप्ति एक हजार वर्ष तक ऋषि ऋषभ ने छद्मस्थ अवस्था में साधना की । अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों को सहन करते हुए वे दूर-दूर तक आर्य जनपदों में विचरते रहे। विचरते-विचरते वे पुरिमतालपुर पधारे। वहां उद्यान में वट वृक्ष के नीचे तेले (तीन दिन का तप) की तपस्या में फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन प्रातः काल प्रभु सर्वज्ञ बने । भगवान् के केवल ज्ञान-प्राप्ति महोत्सव पर चौसठ इन्द्र एकत्रित हुए । देवताओं ने देव-दुंदुभि की। लोगों को ज्ञात हुआ कि अब भगवान् जीवन की आन्तरिक समस्याओं का समाधान देंगे। लोग बहुत प्रसन्न हुए । सर्वत्र एक ही बात होने लगी- अब बाबा बोलेंगे, लोगों की दुविधाओं को मिटायेंगे । वे पिछले एक हजार वर्षों से मौन थे, अब पुनः बोलने वाले हैं । उद्घोषणा सुनकर लोग दूर-दूर से चलकर भगवान् के चरणों में उपस्थित हो गए। देवों ने समवसरण की रचना की। लोगों ने पहली बार भगवान् से अध्यात्म के बारे में सुना । वे धार्मिक उपासना की विधि से परिचित हुए । अनेक व्यक्तियों ने अपने आपको धर्म की उपासना में समर्पित किया । भरत का धर्म-विवेक उस समय सम्राट् भरत को एक साथ तीन बधाइयां प्राप्त हुई । आयुधशाला में अनायास ही चक्र-रत्न पैदा होने का उन्हें संवाद मिला। दूसरी बधाई पुत्र-रत्न
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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