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________________ १९४ / तीर्थंकर चरित्र साधना का नौवां वर्ष चातुर्मास के बाद विशेष कर्मों को खपाने के लिए वज्रभूमि, शुभभूमि जैसे अनार्य प्रदेशों में भगवान् पधारे। वहां अरण्य में, खंडहरों में भगवान् ध्यान करते । अनार्य लोगों ने वहां उनको बहुत कष्ट दिये। उन्हें समभाव पूर्वक सहनकर प्रभु ने महान् कर्म निर्जरा की। वहां उनको चातुर्मास के योग्य स्थान नहीं मिलने से चलते-फिरते चातुर्मास व्यतीत किया । साधना का दसवां वर्ष अनार्य भूमि से विहार कर भगवान् आर्य देश के कूर्म भूमि पधारे। गोशालक भी साथ था। रास्ते में सात पुष्पवाले एक तिल के पौधे को देखकर गोशालक ने पूछा- 'भगवन् ! यह पौधा फलयुक्त होगा ?' भगवान् ने कहा- “हां, यह पौधा फलेगा और सात फूलों के जीव इसकी एक फली में उत्पन्न होंगे।" गोशालक ने भगवान् के कथन को मिथ्या प्रमाणित करने के लिए उस पौधे को उखाड़कर फेंक दिया। संयोगवश उसी समय थोड़ी वर्षा हुई और वह पुनः खड़ा हो गया। कुछ समय के बाद जब भगवान् उधर से गुजरे तो गोशालक ने कहा- 'प्रभो! आपकी भविष्यवाणी गलत हो गई।" भगवान् ने कहा- 'तूने जिस तिल के पौधे को उखाड़ा था वह वहीं पुनः उग गया।" गोशालक को इस पर विश्वास नहीं हुआ। उसने पौधे की फली को तोड़कर देखा तो उसे सात ही तिल मिले। इस घटना से उसका विश्वास ओर दृढ़ हो गया कि जगत् में सब कुछ नियति के अनुसार होता है तथा जो जीव जिस योनि में है वह मर कर उसी योनि में उत्पन्न होता है । कूर्म ग्राम के बाहिर वैश्यायन तापस सूर्य के सम्मुख दोनों हाथों को ऊपर उठाकर विशेष आतापना कर रहा था। तेज धूप से आकुल होकर उसकी जटा से जुएं नीचे गिर रही थी। वैश्यायन तापस उन्हें उठा-उठाकर पुनः जटा में डाल रहा था। गोशालक ने जब यह देखा तो बोल पड़ा- 'अरे ! तू तपस्वी है या जूओं का शय्यातर (घर)' फिर भी तापस शांत रहा। बार-बार गोशालक के बोलने से वह तापस क्रुद्ध हो गया। गोशालक को मारने के लिए वह पांच-सात हाथ पीछे हटा और उसने तेजोलेश्या का प्रयोग किया। आग के गुब्बारे गोशालक की ओर आने लगे । भय के मारे गोशालक भागा और भगवान् के चरणों में छुप गया । भगवान् ने अनुकंपावश शीतल लेश्या प्रयोग कर उसकी तेजोलेश्या को निरस्त कर दिया । गोशालक को सुरक्षित देख तापस भगवान् की शक्ति को समझ गया और विनम्र शब्दों में भगवान् से क्षमा याचना की । गोशालक ने भगवान् से तेजो लेश्या की प्राप्ति का उपाय पूछा तो भगवान् ने बता दिया। तेजो लेश्या की साधना के लिए वह भगवान् से पृथक् हो गया और
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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