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________________ २/तीर्थंकर चरित्र को दर्शाया है। वेदों के बाद उपनिषदों, आरण्यकों, पुराणों में स्थान-स्थान पर इनका वर्णन उपलब्ध होता है। इन ग्रंथों की रचना से पूर्व जैन धर्म नहीं होता, भगवान् ऋषभ नहीं होते तो इनका उल्लेख कैसे होता? जैन धर्म की अवधारणा __जैन धर्म में पुरुषार्थ को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है । यह धर्म भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति हटाकर व्यक्ति को आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख करता है। स्वार्थ को नहीं परमार्थ की भावना को उजागर करता है। प्रवृत्ति के स्थान पर निवृत्ति का राजपथ दिखाता है। भोग की जगह त्याग की भावना पर बल देता है। जैन दर्शन आत्म कर्तृत्ववाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है, प्रत्येक आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करता है और पुनर्जन्म में विश्वास रखता है। हर आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति की बात कहता है। हर छोटे-बड़े जीव को समान दृष्टि से देखता है । जातिवाद को अतात्त्विक मानता है। जैन धर्म में सिद्धान्तों की स्पष्टता के साथ साधना के प्रचुर प्रयोगों का उल्लेख है। यहां ज्ञान, दर्शन व चारित्र मूलक प्रवृत्तियों को उपयोगी माना है। अध्यात्म को प्रमुखता ___जिस प्रकार शिव के नाम पर शैव धर्म, विष्णु के नाम पर वैष्णव धर्म व बुद्ध के नाम पर बौद्ध धर्म प्रचलित हुआ, वैसे ही जिन के नाम पर जैन धर्म प्रचलित हुआ। पर शिव, विष्णु व बुद्ध के विपरीत 'जिन' शब्द किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है। यह उस आध्यात्मिक शक्ति का संबोधक शब्द है जिसमें व्यक्ति ने राग-द्वेष या प्रियता-अप्रियता की स्थिति से अपने आपको उपरत कर लिया है। जैन धर्म का प्रमुख मंत्र है-'नमस्कार-महामंत्र'। इसमें किसी व्यक्ति विशेष को नमस्कार नहीं किया गया है। मात्र आत्म-संपदा से संपन्न उन्हीं विभूतियों को नमस्कार किया जाता है जो वर्ण, लिंग, जाति की सीमा से ऊपर है। जैन धर्म की यह सुस्पष्ट अवधारणा है कि कोई व्यक्ति अपनी आत्मा के उत्कर्ष से महापुरुष बन सकता है, अर्हत या तीर्थंकर बन सकता है। __ देश, काल आदि के अनुसार शब्द बदलते रहे हैं, पर शब्दों के बदलते रहने से जैन-धर्म अर्वाचीन नहीं हो सकता। काल की दृष्टि से इस अवसर्पिणी में उसका संबंध भगवान् ऋषभदेव से है। अवतारवाद का निषेध जैन धर्म अवतारवाद में विश्वास नहीं करता। उसकी यह स्पष्ट अवधारणा है कि तीर्थंकर भी एक सामान्य बच्चे की तरह ही जन्म लेते हैं किंतु अपने पुरुषार्थ व आध्यात्मिक बल पर वे तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं । वैदिक परंपरा अवतारवाद में विश्वास रखती है। अवतारवाद का सीधा अर्थ है-ईश्वर का मानव
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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