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________________ १८६/तीर्थंकर चरित्र में भगवान् अगल-बगल व पीछे मुड़ कर नहीं देखते । मार्ग में वे किसी से बोलते नहीं थे । प्रायः तप में रहते। पारणे में जो रूखा-सूखा ठंडा-बासी भोजन मिल जाता उसे वे अनासक्त भाव से ग्रहण कर लेते। रोग उत्पन्न होने पर औषध-सेवन नहीं करते। आंख में रजकण पड़ने पर भी उसे निकालने तक भी इच्छा नहीं रखते। शरीर को कभी भी नहीं खुजलाते। इस प्रकार देह से विदेह होते हुए प्रतिक्षण प्रतिपल जागरूक व सजग रहकर ध्यान व कायोत्सर्ग से अपनी आत्मा को भावित करते। साधना का पहला वर्ष कोल्लाग सन्निवेश से विहार कर भगवान् मोराक सन्निवेश पधारे। वहां "दुईज्जन्तक" तापसों का आश्रम था। आश्रम का कुलपति महाराज सिद्धार्थ क मित्र था। प्रभु को आते देख कुलपति सामने आये, स्वागत किया और वहां ठहरने की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर महावीर ने वहीं ठहरने का निश्चय किया और एक रात्रि प्रतिमा धारण कर ध्यानावस्थित हो गये। दूसरे दिन जब महावीर विहार करने लगे तो कुलपति ने आश्रम में चातुर्मास व्यतीत करने का निवेदन किया। ध्यान-योग्य एकांत स्थल को देख कर उस प्रार्थना को महावीर ने स्वीकार कर लिया। कुछ समय तक आसपास के गांवों में विचरण कर पुनः वर्षावास के लिए उसी आश्रम में आ गये और पर्ण-कुटी में रहने लगे। उस वर्ष वर्षा के अभाव में हरी घास व दूब नहीं उग पाई । आस-पास के जंगल में चरने वाले पशु पर्याप्त खाद्य के अभाव में आश्रम की पर्ण कुटीरों की सूखी घास को चरने लगे। आश्रम के तापस पर्णकुटीरों की रक्षा हेतु डंडे लेकर जानवरों को भगा देते। महावीर अपने ध्यान में संलग्न थे। जो अपने शरीर की भी सार संभाल छोड़ चुके हैं वे इस पर्णकुटीर का कैसे ध्यान रखेंगे? महावीर जिस कुटीर में थे, उसके घास को पशुओं ने खाना शुरू कर दिया। तापसों ने कुलपति से शिकायत की कि आप कैसे अतिथि को ले आये जो अपनी कुटीर की भी रक्षा नहीं कर रहा है। कुलपति महावीर के पास आये और मृदु उपालंभ देते हुए कहा- 'कुमार ! पक्षी भी अपने नीड़ की रक्षा करते हैं। तुम तो क्षत्रिय राजकुमार हो। तुम्हें तो अपनी कुटी की रक्षा स्वयं जागरूकता से करनी चाहिए।' महावीर को यह बात नहीं जची। उन्होंने सोचा- "अब यहां मेरा रहना अप्रीतिकर रहेगा, इसलिये यहां रहना उपयुक्त नहीं ।" ऐसा सोचकर उन्होंने चातुर्मास का एक पक्ष बिता कर वहां से विहार कर दिया। उस समय भगवान् ने निम्नोक्त पाँच प्रतिज्ञाएं ग्रहण की १. अप्रीतिकारक स्थान में नहीं रहूंगा।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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