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________________ lee (२०) भगवान् श्री मुनिसुव्रत Pears तीर्थंकर गोत्र का बंध भगवान् मुनिसुव्रत के जीव ने पश्चिम महाविदेह में भरत विजय की चम्पा नगरी के नरेश सुरश्रेष्ठ के जन्म में उत्कृष्ट कोटि की साधना की थी। प्राप्त सत्ता को ठुकरा कर उन्होंने मुनि-व्रत को ग्रहण किया। विभिन्न अनुष्ठानों से आर्हत् धर्म की प्रभावना की । महान् कर्म-निर्जरा कर उन्होंने तीर्थंकर गोत्र का बंध किया तथा पण्डित मरण पाकर प्राणत स्वर्ग में महर्धिक देव बने। जन्म अतुलनीय स्वर्गीय सुखों को भोगकर भव समाप्ति के बाद भरत क्षेत्र की राजगृह नगरी के राजा सुमित्र के राजप्रासाद में वे महारानी प्रभावती की कोख में अवतरित हुए। बालक की महानता स्वप्नों से ज्ञात हो चुकी थी। ऐसे बालक के गर्भ में आने से सभी प्रसन्न थे। गर्भकाल पूरा होने पर ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी (कई नवमी भी मानते हैं) को मध्यरात्रि में बिना किसी पीड़ा के पुत्र का प्रसव हुआ। छप्पन दिग्कुमारियों ने जन्मोत्सव की व्यवस्था की। चौसठ इंद्र व अनेक देवता इकट्ठे हुए। बाद में राजा सुमित्र ने अपार आल्हाद से पुत्र का जन्म-महोत्सव किया। नाम के दिन समागत सम्मानित नागरिक व पारिवारिक बुजुर्गों से राजा ने कहा- 'बालक के गर्भकाल में माता का मन व्रत पालन में बड़ा सजग रहता था। कभी किसी व्रत में त्रुटि नहीं आने दी अतः बालक का नाम मुनिसुव्रत रखा जाए।' बालक मुनिसुव्रत कल्पवृक्ष की भांति निर्विघ्न बढ़ते रहे। बाल्यकाल के बाद जब तारुण्य में प्रवेश किया, तब राजा सुमित्र ने सुयोग्य व समवयस्क राजकन्याओं के साथ कुंवर का पाणिग्रहण करवाया तथा कुछ वर्षों के बाद उन्हें राज्य सौंप कर स्वयं निवृत्त हो गये। राजा मुनिसुव्रत ने राज्य का संचालन उत्तम रीति से किया। लोगों को मर्यादानिष्ठ बनाकर अनेक समस्याओं को समाप्त कर दिया। राज्यकाल में लोग स्वतः व्यवस्था का पालन करते थे। अव्यवस्था पूर्णतः सभाप हो गई।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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