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________________ १२२/तीर्थंकर चरित्र ६. कपिलपुर के राजा जितशत्रु मित्र राजा अशोक वाटिका के मोहनघर में पहुंचे तो वहां सुसज्जित पुतली को मल्लिकुमारी समझकर निहारने लगे। रूप में उन्मत्त होकर वे उसे देख ही रहे थे कि मल्लिकुमारी ने वहां आकर पुतली के ऊपर का ढक्कन उतार दिया। ढक्कन के अलग होते ही भीतर से सड़े हुए अन्न की दुर्गन्ध चारों ओर फैल गई। दुर्गन्ध के फैलते ही राजा लोग नाम-भौं सिकोड़ते हुए इधर-उधर झांकने लगे। अवसर देखकर राजकुमारी मल्लि ने कहा- 'राजाओं ! प्रतिदिन एक कौर अन्न डालने से ही पुतली में इतनी सड़ान्ध पैदा हो गई है, तो यह शरीर तो मात्र अन्न का पुतला है। हाड़-मांस व मल-मूत्र के अतिरिक्त इसमें है ही क्या ? फिर इस पर आसक्ति कैसी ? आप लोग आसक्ति छोड़िये और पवित्र मैत्री सम्बन्धों को याद कीजिये। आज से तीसरे जन्म में हम अभिन्न मित्र थे। मेरा नाम महाबल था। आप लोगों के नाम अमुक-अमुक थे। आइए, इस बार प्रबल साधना करके हम सातों शाश्वत स्थान को प्राप्त करें, जहां से हमारा अलगाव कभी हो ही नहीं।' मल्लिकुमारी के इस प्रेरक उद्बोधन व पिछले जन्म की बातों से राजाओं को जाति स्मरण ज्ञान हो गया। उन्होंने अपने पिछले सम्बन्धों को स्वयं देख लिया। तत्काल सभी विरक्त होकर बोले- ‘भगवती ! क्षमा करें, हमसे अनजाने में गलती हुई है। अब हम विरक्त हैं आज्ञा दीजिये, आपके साथ साधना करके बन्धन-मात्र को क्षय कर डालें। दीक्षा राजकुमारी मल्लि की स्वीकृति पाकर छहों राजा अपनी-अपनी राजधानी में आकर चारित्र लेने की तैयारी में जुट गये। उधर राजकुमारी मल्लि ने भी दीक्षा लेने की घोषणा की। वर्षीदान देने के बाद निर्धारित तिथि मिगसर शुक्ला इग्यारस के दिन तीन सौ स्त्रियों तथा तीन सौ पुरुषों के साथ मल्लि भगवती ने दीक्षा ग्रहण की। कई दीक्षा तिथि पोष शुक्ला ११ मानते हैं। दीक्षा के दिन तेला था। दूसरे दिन मिथिला के राजा विश्वसेन के यहां पारणा किया। दीक्षा लेते ही वे मनः पर्यव ज्ञानी बन गई। मनः पर्यव ज्ञान होते ही भगवती मल्लि कायोत्सर्ग युक्त ध्यान में तन्मय बनीं तथा उसी दिन के तीसरे प्रहर में क्षपक श्रेणी लेकर उन्होंने सर्वज्ञता प्राप्त की। इस अवसर्पिणी में सबसे कम छद्मस्थ अवस्था में चारित्र की पर्याय पालने वाली तीर्थंकर वे ही थीं। दीक्षा के दिन सर्वज्ञता सिर्फ उनको ही प्राप्त हुई थी। देवेन्द्रों ने उत्सव के बाद समवसरण की रचना की। भगवती मल्लि ने प्रथम प्रवचन दिया। प्रवचन के अनंतर ही तीर्थ की स्थापना हो गई। अनेक व्यक्तियों ने निकेत व अनिकेत धर्म की साधना स्वीकार की।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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