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________________ 0000--000 (१८) भगवान् श्री अरनाथ तीर्थंकर गोत्र का बंध भगवान् श्री अरनाथ का जीव जंबू द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र की सुसीमा नगरी के नरेश धनपति के रूप में था। उस भव में उन्होंने विशेष धर्म की साधना की। राज्य भी किया, किन्तु सहज बन कर । लोगों को इतना नीतिनिष्ठ बनाया कि कभी दण्ड देने की अपेक्षा भी नहीं हुई। ___ अन्त में राजा धनपति ने विरक्त होकर संवरमुनि के पास संयम ग्रहण किया। अभिग्रह, ध्यान तथा स्वाध्याय की विशेष साधना करते हुए आर्य जनपद में निरपेक्ष भाव से विचरते रहे। एक बार उनके चतुर्मासी तप का पारणा जिनदास के यहां हुआ। देवों ने 'अहोदानं' की ध्वनि से दानदाता व मुनि की भारी महिमा फैलाई। मुनि फिर भी निरपेक्ष रहे, अहंकार लेश मात्र भी मुनि को नहीं छू पाया। इस प्रकार. उच्चतम साधना से महान् कर्म-निर्जरा कर तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। अन्त में आराधक पद पाकर वे ग्रैवेयक में महर्धिक देव बने। जन्म __ देवत्व का पूर्ण आयुष्य भोग कर भगवान् हस्तिनापुर नगर के राजा सुदर्शन के राजप्रासाद में आये। वे रानी महादेवी की कुक्षि में उत्पन्न हुए। रानी महादेवी ने चौदह स्वप्न देखे। प्रातः नगर के घर-घर में महारानी के स्वप्नों तथा उनके फलों की चर्चा होने लगी। गर्भकाल पूरा होने पर मिगसर शुक्ला दशमी की मध्य रात्रि में परम आनन्दमय वेला में प्रसव हुआ। देवेन्द्रों के उत्सव के बाद महाराज सुदर्शन ने समुल्लसित भाव से जन्मोत्सव किया। नाम के दिन विराट् आयोजन में महाराज सुदर्शन ने बताया- 'यह बालक जब गर्भ में था, तब इसकी माता ने रत्नमय अर चक्र (अर) देखा था, अतः बालक का नाम अरकुमार रखा जाये।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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